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कलश पद्यानुवाद ( हरिगीत )
कामगज के कुंभथल का किया मर्दन जिन्होंने । विकसित करें जो शिष्यगण के हृदयपंकज नित्य ही ॥ परम संयम और सम्यक्बोध की हैं मूर्ति जो । हो नमन बारम्बार ऐसे सूरि माधवसेन को ॥ १०८ ॥ सम्पूर्ण विषयों के ग्रहण की भावना से मुक्त हों । निज द्रव्य गुण पर्याय में जो हो गये अनुरक्त हों ॥ छोड़कर सब विभावों को नित्य निज में ही रमें। अति शीघ्र ही वे भव्य मुक्तीरमा की प्राप्ति करें ।। १०९ ।। (रोला )
अबतक जो भी हुए सिद्ध या आगे होंगे ।
महिमा जानो एकमात्र सब भेदज्ञान की । और जीव जो भटक रहे हैं भवसागर में ।
भेदज्ञान के ही अभाव से भटक रहे हैं । । ३७॥ ' इसप्रकार की थिति में मुनिवर भेदज्ञान से ।
पापपंक को धोकर समतारूपी जल से ॥ ज्ञानरूप होने से आतम मोहमुक्त हो ।
शोभित होता समयसार की कैसी महिमा ||११० ॥ ( हरिगीत )
क्या लाभ है ऐसे अनल्प विकल्पों के जाल से । बस एक ही है बात यह परमार्थ का अनुभव करो ॥ क्योंकि निजरसभरित परमानन्द के आधार से । कुछ भी नहीं है अधिक सुन लो इस समय के सार से ||३८|| ( दोहा )
तीव्र मोहवश जीव जो किये अशुभतम कृत्य ।
उनका कर प्रतिक्रमण मैं रहूँ आतम में नित्य ॥ १११ ॥ १. समयसार, कलश १३१ २. वही, कलश २४४