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नियमसार अनुशीलन
तज आर्त एवं रौद्र ध्यावे धरम एवं शुकल को । परमार्थ से वह प्रतिक्रमण यह कहा जिनवर सूत्र में ॥ ८९ ॥ मिथ्यात्व आदिक भाव तो भाये सुचिर इस जीव ने । सम्यक्त्व आदिक भाव पर भाये नहीं इस जीव ने ||१०|| ज्ञानदर्शनचरण मिथ्या पूर्णतः परित्याग कर । रतनत्रय भावे सदा वह स्वयं ही है प्रतिक्रमण ॥९१॥ उत्तम पदारथ आतमा में लीन मुनिवर कर्म को । घातते हैं इसलिए निज ध्यान ही है प्रतिक्रमण ॥९२॥ निजध्यान में लवलीन साधु सर्व दोषों को तजे । बस इसलिए यह ध्यान ही सर्वातिचारी प्रतिक्रमण ॥९३॥ प्रतिक्रमण नामक सूत्र में वर्णन किया जिसरूप में । प्रतिक्रमण होता उसे जो भावे उसे उस रूप में ||१४||
सब तरह के जल्प तज भावी शुभाशुभ भाव को । जो निवारण कर आत्म ध्यावे उसे प्रत्याख्यान है ||१५||
ज्ञानी विचारें इसतरह यह चिन्तवन उनका सदा । केवल्यदर्शन - ज्ञान- सुख- शक्तिस्वभावी हूँ सदा ॥ ९६ ॥ ज्ञानी विचारें देखे-जाने जो सभी को मैं वही । जो ना ग्रहे परभाव को निज भाव को छोड़े नहीं || १७ ||
प्रकृति थति अनुभाग और प्रदेश बंध बिन आतमा । मैं हूँ वही - यह सोचता ज्ञानी करे थिरता वहाँ ॥ ९८ ॥ छोड़कर ममभाव निर्ममभाव में मैं थिर रहूँ। बस स्वयं का अवलम्ब ले अवशेष सब मैं परिहरु ||१९|| मम ज्ञान में है आतमा दर्शन चरित में आतमा । अर योग संवर और प्रत्याख्यान में भी आतमा ||१००||
अकेला ही मरे एवं जीव जन्मे अकेला । मरण होता अकेले का मुक्त भी हो अकेला ||१०१ ||