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________________ गाथा पद्यानुवाद ( हरिगीत ) नहीं ॥७७॥ नहीं । नहीं ॥ ७८ ॥ मैं नहीं नारक देव मानव और तिर्यग मैं नहीं । कर्ता कराता और मैं कर्तानुमंता भी मार्गणास्थान जीवस्थान गुणथानक कर्ता कराता और मैं कर्तानुमंता भी बालक तरुण बूढा नहीं इन सभी का कारण कर्ता कराता और मैं कर्तानुमंता भी मैं मोह राग द्वेष न इन सभी का कारण कर्ता कराता और मैं कर्तानुमंता भी मैं मान माया लोभ एवं क्रोध भी मैं हूँ कर्ता कराता और मैं कर्तानुमंता भी इस भेद के अभ्यास से मध्यस्थ हो चारित्र हो । चारित्र दृढता के लिए प्रतिक्रमण की चर्चा करूँ ||८२|| नहीं । नहीं ॥ ८१ ॥ नहीं । नहीं ॥ ७९ ॥ नहीं | नहीं ॥ ८० ॥ वचन रचना छोड़कर रागादि का कर परिहरण । ध्याते सदा जो आतमा होता उन्हीं को प्रतिक्रमण ॥८३॥ विराधना को छोड़ जो आराधना में नित रहे । प्रतिक्रमणमय है इसलिए वह स्वयं ही प्रतिक्रमण है ॥८४॥ जो जीव छोड़ अनाचरण आचार में थिरता धरे । प्रतिक्रमणमय है इसलिए प्रतिक्रमण कहते हैं उसे ॥ ८५ ॥ छोड़कर उन्मार्ग जो जिनमार्ग में थिरता धरे । प्रतिक्रमणमय है इसलिए प्रतिक्रमण कहते हैं उसे ॥ ८६ ॥ छोड़कर त्रिशल्य जो निःशल्य होकर परिणमे । प्रतिक्रमणमय है इसलिए वह स्वयं ही प्रतिक्रमण है ॥ ८७ ॥ तज अगुप्तिभाव जो नित गुप्त गुप्ती में रहें । प्रतिक्रमणमय है इसलिए प्रतिक्रमण कहते हैं उन्हें ॥ ८८ ॥
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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