SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 246
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गाथा पद्यानुवाद २३९ ज्ञान-दर्शनमयी मेरा एक शाश्वत आतमा। शेष सब संयोगलक्षण भाव आतम बाह्य हैं।।१०२।। मैं त्रिविध मन-वच-काय से सब दुश्चरित को छोड़ता। अर त्रिविध चारित्र से अब मैं स्वयं को जोड़ता।।१०३|| सभी से समभाव मेरा ना किसी से वैर है। छोड़ आशाभाव सब मैं समाधि धारण करूँ॥१०४|| जो निष्कषायी दान्त है भयभीत है संसार से। व्यवसाययुत उस शूर को सुखमयी प्रत्याख्यान है।।१०५|| जो जीव एवं करम के नित करे भेदाभ्यास को। वह संयमी धारण करे रे नित्य प्रत्याख्यान को।।१०६|| जो कर्म से नोकर्म से अर विभावगुणपर्याय से। भी रहित ध्यावे आतमा आलोचना उस श्रमण के||१०७॥ आलोचनं आलुंछनं अर भावशुद्धि अविकृतिकरण | आलोचना के चार लक्षण भेद आगम में कहे ।।१०८।। उपदेश यह जिनदेव का परिणाम को समभाव में। स्थाप कर निज आतमा को देखना आलोचनम् ॥१०९|| कर्मतरु का मूल छेदक जीव का परिणाम जो। समभाव है बस इसलिए ही उसे आलुंछन कहा ।।११०।। निर्मलगुणों का निलय आतम कर्म से भिन जीव को। भाता सदा जो आतमा अविकृतिकरण वह जानना ।।१११।। मदमानमायालोभ विरहित भाव को जिनमार्ग में। भावशुद्धि कहा लोक-अलोकदर्शी देव ने॥११२।। जो शील संयम व्रत समिति अर करण निग्रहभाव हैं। सतत् करने योग्य वे सब भाव ही प्रायश्चित्त हैं।॥११३|| प्रायश्चित्त क्रोधादि के क्षय आदि की सद्भावना । अर निजगुणों का चिंतवन यह नियतनय का है कथन ||११४||
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy