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________________ गाथा १२१ : शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्ताधिकार २३१ - (हरिगीत ) रेसभी कारज कायकृत मन के विकल्प अनल्प जो। अर जल्पवाणी के सभी को छोड़ने के हेतु से॥ निज आत्मा के ध्यान से जो स्वात्मनिष्ठापरायण। हे भव्यजन उन संयमी के सतत् कायोत्सर्ग है।।१९५|| जो स्वात्मनिष्ठापरायण हैं; उन संयमियों को काया से उत्पन्न होनेवाले अति प्रबल कार्यों के त्याग के कारण, वाणी के जल्पसमूह की विरति के कारण और मानसिक विकल्पों की निवृत्ति के कारण तथा निज आत्मा का ध्यान के कारण निश्चय से सतत् कायोत्सर्ग है। आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस छन्द का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - ____ “जो अपने आत्मा में लीन हो गये हैं - ऐसे संतों को – मुनिराजों को चौबीस घण्टे अर्थात् प्रतिक्षण कायोत्सर्ग होता है; क्योंकि जो जीव आत्मा में लीन हो गया है, उसके देह सम्बन्धी समस्त विकल्पों से सहज ही विरक्ति हो जाती है। अर्थात् उसके देह की क्रियाओं में अपनत्व टूट जाता है, वाणी के जल्पसमूह से विरक्ति हो जाती है तथा मन के विकल्पों से भी मुक्ति मिल जाती है। - इसप्रकार मन-वचनकाय तीनों की ओर वलण न होकर एक आत्म-सम्मुख ही वलण होता है। इसलिए आत्मध्यान में लीन मुनिराज के निश्चय सतत् कायोत्सर्ग होता है। कायोत्सर्ग अर्थात् काया का त्याग । काया के त्याग से तात्पर्य है काया के प्रति अनुराग छोड़ना, एकाग्रता छोड़ना और चैतन्य के प्रति एकाग्रता करना । चैतन्यतत्त्व में एकाग्र होने पर कायादि के प्रति वलण नहीं रहता - इसे ही कायोत्सर्ग कहते हैं।" उक्त छन्द में अत्यन्त सरल शब्दों में यह बात कही गई है कि अपने आत्मा में सलंग्न संयमीजनों के न तो कायासंबंधी अति प्रबल १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १००८ २. वही, पृष्ठ १००८
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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