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________________ नियमसार अनुशीलन यह जीव जब सहज कारणपरमात्मा में एकाग्र हुआ, तब सहज परम वैराग्य हुआ तथा तभी तपरूपी समुद्र उछला और उसे यथार्थ कायोत्सर्ग हुआ । वास्तव में तो शरीर का त्याग ज्ञानशरीरी आत्मा के अवलम्बन से ही होता है । खड़े रहने का अथवा बैठने का नाम उत्सर्ग नहीं है । सहज चैतन्य में लीनता का नाम ही उत्सर्ग है । " 1 1 २३० यद्यपि इस शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्त अधिकार में आदि से अर्थात् गाथा ११३ से लेकर गाथा ११८ तक निश्चयप्रायश्चित्त की ही चर्चा चलती रही है; तथापि अन्तिम तीन गाथाओं में क्रमशः ध्यान, शुद्धनिश्चयनियम और निश्चयकायोत्सर्ग की चर्चा हुई है। इससे प्रतीत होता है कि शुद्धनिश्चयनय से ध्यान, निश्चयनियम और निश्चयकायोत्सर्ग एक प्रकार से शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्त के ही रूपान्तर हैं। इस गाथा और उसकी टीका में निश्चयकायोत्सर्ग का स्वरूप समझाते हुए कहा गया है कि शरीर, स्त्री- पुत्रादि, मकानादि एवं स्वर्णादि परपदार्थों में स्थिरभाव (कायादि स्थिर हैं - इसप्रकार की मान्यता) छोड़कर, व्यवहारिक क्रियाकाण्ड एवं विकल्पों के कोलाहल से रहित होकर, परमयोग के बल से, जो जीव निजकारणपरमात्मा को ध्याता है; वह जीव ही निश्चयकायोत्सर्ग है || १२१ ॥ इसके बाद टीकाकार मुनिराज पाँच छन्द लिखते हैं; उनमें से पहला छन्द इसप्रकार है - ( मंदाक्रांता ) कायोत्सर्गो भवति सततं निश्चयात्संयतानां कायोद्भूतप्रबलतरतत्कर्ममुक्तेः सकाशात् । वाचां जल्पप्रकरविरतेर्मानसानां निवृत्तेः स्वात्मध्यानादपि च नियतं स्वात्मनिष्ठापराणाम् ।। १९५ ।। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १००७
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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