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________________ २३२ नियमसार अनुशीलन कार्य होते हैं; न वचनसंबंधी अनर्गल प्रलाप होता है और न मन में विकल्पों का अंबार होता है । इसप्रकार मन-वचन-काय संबंधी विकृति के अभाव के कारण और आत्मा के सतत् ध्यान के कारण निश्चयनयाश्रित वीतरागी सन्तों के निरंतर निश्चयकायोत्सर्ग होता है ।।१९५।। दूसरा व तीसरा छन्द इसप्रकार है - (मालिनी) जयति सहजतेज:पुंजनिर्मग्नभास्वत् सहजपरमतत्त्वं मुक्तमोहान्धकारम् । सहजपरमदृष्ट्या निष्ठितन्मोघजातं। भवभवपरितापैः कल्पनाभिश्च मुक्तम् ।।१९६।। भवभवसुखमल्पं कल्पनामात्ररम्यं तदखिलमपि नित्यं संत्यजाम्यात्मशक्त्या। सहजपरमसौख्यं चिच्चमत्कारमात्रं स्फुटितनिजविलासं सर्वदा चेतयेहम् ।।१९७ ।। . (हरिगीत) मोहतम से मुक्त आतमतेज से अभिषिक्त है। दृष्टि से परिपूर्ण सुखमय सहज आतमतत्त्व है। संसार में परिताप की परिकल्पना से मुक्त है। अरे ज्योतिर्मान निज परमातमा जयवंत है।।१९६|| संसारसुख अति अल्प केवल कल्पना में रम्य है। मैं छोड़ता हैं उसे सम्यक रीति आतमशक्ति से। मैं चेतता हूँ सर्वदा चैतन्य के सदज्ञान में। स्फुरित हूँ मैं परमसुखमय आतमा के ध्यान में ||१९७|| सहजतेजपुंज में निमग्न, मोहान्धकार से मुक्त, सहज प्रकाशमान परमतत्त्व सदा जयवंत है। वह परमतत्त्व सहज परमदृष्टि से परिपूर्ण है और वृथा उत्पन्न भव-भव के परिताप से कल्पनाओं से मुक्त है। कल्पनामात्र रमणीय तुच्छ सांसारिक सुख को मैं आत्मशक्ति से
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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