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नियमसार अनुशीलन (हरिणी) वचनरचनां त्यक्त्वा भव्यः शुभाशुभलक्षणां सहजपरमात्मानं नित्यं सुभावयति स्फुटम् । परमयमिनस्तस्य ज्ञानात्मनो नियमादयं भवति नियमःशुद्धो मुक्त्यंगनासुखकारणम् ।।१९१।।
(हरिगीत ) जो भव्य भावें सहज सम्यक् भाव से परमात्मा। ज्ञानात्मक उस परम संयमवंत को आनन्दमय॥ शिवसुन्दरी के सुक्ख का कारण परमपरमातमा।
के लक्ष्य से सद्भावमय शुधनियम होता नियम से।।१९१।। जो भव्यजीव शुभाशुभवचनरचना को छोड़कर सदा स्फुटरूप से सहज परमात्मा को सम्यक् प्रकार से भाता है; उस ज्ञानात्मक परमसंयमी को मुक्ति सुन्दरी के सुख का कारणरूप यह शुद्धनियम नियम से होता है। ___ आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस छन्द के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
"शुभाशुभ वचन रचना के विकल्प को छोड़कर जो भव्यजीव अन्तर में नित्य प्रगटपने सहजपरमात्मा की सम्यक्प्रकार से भावना भाता है, वह अपने ज्ञानस्वरूप में स्थित हो जाता है। ऐसे परम मुनिराज को मुक्तिरूपी स्त्री के सुख की प्राप्ति का कारण शुद्ध नियम प्रगट होता है। जगत में जिस स्त्री का संयोग होता है, उसका तो वियोग हो जाता है; परन्तु आत्मा की शुद्ध परणतीरूपी स्त्री का सादि अनंतकाल में कभी भी विरह नहीं होता।" __इस छन्द में अत्यन्त स्पष्टरूप से यह कहा गया है कि जो भव्यजीव वचन विकल्पों से विरक्त हो निज भगवान आत्मा की आराधना करता है; उस परमसंयमी संत को मुक्ति प्राप्त करानेवाला शुद्धनियम अर्थात् निश्चयप्रायश्चित्त या ध्यान नियम से होता है। ।१९१।।
१. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १००२