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गाथा १२० : शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्ताधिकार दूसरा छन्द इसप्रकार है -
(मालिनी) अनवरतमखंडाद्वैतचिनिर्विकारे ।
निखिलनयविलासोन स्फुरत्येव किंचित् । अपगत इह यस्मिन् भेदवादस्समस्तः तमहमभिनमामि स्तौमि संभावयामि ।।१९२।।
(हरिगीत) जो अनवरत अद्वैत चेतन निर्विकारी है सदा। उस आत्म को नय की तरंगें स्फुरित होती नहीं। विकल्पों से पार एक अभेद जो शुद्धातमा ।
हो नमन, वंदन, स्तवन अर भावना हो भव्यतम ।।१९२।। जो अनवरतरूप से अर्थात् निरन्तर अखण्ड, अद्वैत चैतन्य के कारण निर्विकार है; उस भगवान आत्मा को नयों का विलास किंचित् मात्र भी स्फुरित नहीं होता; जिसमें समस्त भेदवाद अर्थात् नय संबंधी विकल्प दूर हुए हैं; उस परमपदार्थ को मैं नमन करता हूँ, मैं उसका स्तवन करता हूँ और मैं उसे भलीप्रकार से भाता हूँ। __ आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस छन्द के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - ___ "द्रव्य वस्तु तो अखण्ड है, उसमें भेदवाद नहीं है तथा ऐसी अखण्ड वस्तु ही दृष्टि का विषय है। पद्मप्रभमलधारिदेव कहते हैं कि जिस अखण्ड परमात्मतत्त्व में शुद्ध-अशुद्धनय के विकल्पों का अभाव है - ऐसे निज परमात्मतत्त्व को मैं नमन करता हूँ। __ ऐसे परमात्मतत्त्व को प्राप्त करने की, अनुभव करने की भावना करने में ही नमस्कार, स्तवन, सामायिक, भक्ति, समाधि इत्यादि सभी
आ जाते हैं। ___ जो अपने अन्दर विराजमान परमात्म स्वरूप में एकाग्र हुआ है, उसने ही परमात्मा का वास्तविक स्तवन किया है, उसने ही परमात्मा