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________________ गाथा १२० : शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्ताधिकार २२३ ___ “देखो, यह नियमसार का नियम! चैतन्यस्वरूप आत्मा का ध्यान करने पर जो रागादिभावों का अभाव होता है, वास्तव में उसे ही मोक्ष का नियम कहा है। इस शुद्धात्मा के आश्रय में ही मोक्षमार्ग का शुद्ध (यथार्थ) नियम प्रगट होता है। अहो! आचार्यदेव को नियमसार में चिदानन्द आत्मा के अवलम्बन में ही समस्त क्रियायें समाहित दिखाई देती हैं। शुद्धज्ञायक वस्तु का आश्रय ही निश्चय से - नियम से मोक्षमार्ग है। आत्मसन्मुखता के बिना कुछ भी करे उसे नियम संज्ञा प्राप्त नहीं होती। ___ यहाँ मात्र वचनरचना को छोड़ने के लिए ही नहीं कहा है, बल्कि मोह-राग-द्वेष आदि समस्त परभावों को भी छोड़ने के लिए कहा है।" ___ ग्रन्थ के आरम्भ में ही नियम के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए तीसरी गाथा में कहा गया था कि नियम से करने योग्य जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र हैं, वे ही नियम हैं। यहाँ इस गाथा में कहा जा रहा है कि शुभाशुभवचनरचना का और रागादिभावों का निवारण करके अपने भगवान आत्मा का ध्यान करना ही नियम है। उक्त दोनों बातों में कोई विशेष अन्तर नहीं है; क्योंकि निज भगवान आत्मा की आराधना का नाम ही सम्यक्दर्शन-ज्ञान-चारित्र है और आत्मा का ध्यान भी तो वीतरागभावरूप है, चारित्ररूप है, चारित्रगुण की पर्याय है, स्वात्मा में ज्ञान की स्थिरतारूप है। ___ यहाँ प्रायश्चित्ताधिकार होने से ध्यान को ही निश्चयप्रायश्चित्त बताया जा रहा है और नियम की चर्चा भी उक्त संदर्भ में ही है। अत: जिसप्रकार आत्मध्यान निश्चयप्रायश्चित्त है; उसीप्रकार निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्ररूप नियम भी निश्चयप्रायश्चित्त है।।१२०|| ___ इसके बाद टीकाकार मुनिराज चार छन्द लिखते हैं, जिनमें पहला छन्द इसप्रकार है - १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १००० २. वही, पृष्ठ १०००
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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