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________________ नियमसार अनुशीलन २२० लिए कहा है। क्षायिकभाव के परिहार का अर्थ क्षायिकभाव का आश्रय छोड़कर एकरूप परमपारिणामिक स्वभाव का अवलम्बन लेना है । शुद्ध पारिणामिकभाव त्रिकाली ध्रुव है, अंशी है; उसके आश्रय से निर्मल पर्यायें प्रगट होती । क्षायिकभाव जो स्वयं अंश है, पर्याय हैं, उसके आश्रय से निर्मलता प्रगट नहीं होती । १ इसप्रकार शुद्धात्मा के ध्यान से ही समस्त परभावों का परिहार हो जाता है। तथा ऐसा होने से पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति, प्रायश्चित्त, प्रत्याख्यान, आलोचना इत्यादि सभी शुद्धात्मा के ध्यान में समाहित हो जाते हैं । आत्मस्वरूप के सन्मुख होना ही धर्म है । यह जीव जितनाजितना स्वरूपसन्मुख होता है, उतनी उतनी वीतरागता बढ़ती जाती है । इसे ही सामायिक, प्रतिक्रमण या मोक्षमार्ग कुछ भी कहो, सब एक ही बात है । आत्मस्वरूप का ध्यान करना ही मोक्षमार्ग है, आत्मस्वरूप का ध्यान करने के लिए सर्वप्रथम आत्मा का स्वरूप जानना चाहिए । आत्मस्वरूप में एकाग्र होना ही मोक्षमार्ग है, सम्यग्दर्शन भी आत्मस्वरूप ध्यान से ही होता है । ४" परमपारिणामिकभावरूप निज भगवान आत्मा के सम्यक् ज्ञान और उसमें ही अपनेपन के श्रद्धानपूर्वक होनेवाले धर्मध्यानरूप शुद्धभाव ही निश्चयप्रायश्चित्त हैं । इस गाथा की टीका में अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में यह कहा गया है कि एकमात्र परमपारिणामिकभाव को छोड़कर शेष सभी भाव परभाव हैं। औदयिकभाव तो परभाव हैं ही, किन्तु धर्मरूप औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिकभाव भी परभाव हैं; क्योंकि उनके आश्रय से, उनमें अपनापन स्थापित करने से, उनका ध्यान करने से सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्ररूप मोक्षमार्ग की प्राप्ति नहीं होती; अतः १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ९९३-९९४ ३. वही, पृष्ठ ९९६ - ९९७ - २. वही, पृष्ठ ९९५ ४. वही, पृष्ठ ९९७
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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