SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 226
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नियमसार गाथा १९९ विगत गाथाओं में तप को प्रायश्चित्त स्थापित करने के उपरान्त अब इस गाथा में ध्यानरूप तप को ही प्रायश्चित्त कह रहे हैं । गाथा मूलत: इसप्रकार है अप्पसरूवालंबणभावेण द् सव्वभावपरिहारं । सक्कदि कादुं जीवो तम्हा झाणं हवे सव्वं । । ११९ ।। ( हरिगीत ) निज आतमा के ध्यान से सब भाव के परिहार की । इस जीव में सामर्थ्य है निजध्यान ही सर्वस्व है || १९९|| निजात्मस्वरूप के अवलम्बन से यह आत्मा सभी अन्य भावों का परिहार कर सकता है; इसलिए ध्यान ही सर्वस्व (सबकुछ) है। इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज इसप्रकार स्पष्ट करते हैं"यहाँ स्वात्मा के आश्रयरूप निश्चयधर्मध्यान ही सभी भावों का अभाव करने में समर्थ है - ऐसा कहा है । समस्त परद्रव्यों के परित्यागरूप लक्षण से लक्षित, अखण्ड, नित्य, निरावरण, सहज, परमपारिणामिकभाव की भावना से; औदयिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक इन चार भावान्तरों का परिहार करने में समर्थ अति- आसन्न भव्यजीव को पापरूपी अटवी को जलानेवाली अग्नि कहा है । ऐसा होने से यह सहज सिद्ध है कि पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति, प्रायश्चित्त, आलोचना आदि सब ध्यान ही हैं । " - — स्वामीजी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं "देखो, यहाँ उपशम, क्षयोपशम और क्षायिकभाव को भी परभाव कहा है। व्यवहाररत्नत्रयरूप शुभभाव, वह उदयभाव है । चारों भाव त्रिकाली परम पारिणामिकभाव से अन्य हैं । - इस अपेक्षा उन्हें परभाव कहा है और उनका अवलम्बन छुड़ाने के लिए उनका परिहार करने के
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy