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________________ नियमसार अनुशीलन जो तप अनादि संसार से समृद्ध कर्मों की महा अटवी को जला देने के लिए अग्नि की ज्वाला के समूह समान हैं, समतारूपी सुख से सम्पन्न है और मोक्षलक्ष्मी के लिए भेंटस्वरूप है; उस चिदानन्दरूपी अमृत से भरे हुए तप को संत कर्मक्षय करनेवाला प्रायश्चित्त कहते हैं; अन्य किसी कार्य को प्रायश्चित्त नहीं कहते । २१८ आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस छन्द का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - - " आहार का त्याग करना या साधारण आहार करना इसका नाम तप नहीं है। स्वरूपस्थितिपूर्वक आहार का त्याग हो तो वहाँ भी स्वरूपस्थिरता ही तप है, आहार का त्याग तप नहीं है । चिदानन्द स्वरूप आत्मा का भान करके उसमें स्थिरता करने में ही तप, प्रायश्चित्त आदि समस्त धर्म क्रियाएँ आ जाती हैं। इसके अलावा बाहर की किसी भी शुभाशुभ क्रियाओं में शुभाशुभ भाव में तप अथवा प्रायश्चित्त नहीं होता । 11 - अनन्तकाल के परिभ्रमण के नाश करने में समर्थ - ऐसा शुद्धात्मा में एकाग्रतारूप तप ही प्रायश्चित्त है। यह मुनिदशा की बात है, मुनि हुए बिना मुक्ति नहीं होती । इसलिए गृहस्थों को मुनिदशा का स्वरूप जानकर सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञानपूर्वक उसको प्राप्त करने की भावना भाना चाहिए। इसके बिना मुनिदशा नहीं होती और मुनिदशा हुए बिना मुक्ति नहीं होती । " इस छन्द में भी गाथा की बात दुहराते हुए यही कहा गया है कि चिदानन्दरूपी अमृत से भरा हुआ तप ही निश्चयप्रायश्चित्त है; क्योंकि वह कर्मों का नाशक है, समतासुख और मोक्षरूपी लक्ष्मी को देनेवाला है ॥ १८९॥ १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ९९०-९९१
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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