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________________ गाथा ११८ : शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्ताधिकार २१७ चैतन्यस्वभाव में एकाग्रता से जो वीतराग परिणति प्रगट होती है, वही समस्त धर्मक्रिया है और वही मुक्ति का कारण है। ___ यहाँ, प्रसिद्ध शुद्धकारणपरमात्मतत्त्व में सदा अन्तर्मुख रहकर प्रतपन करना तप है - ऐसा कहा है। . शुभाशुभ भावकर्म तथा द्रव्यकर्म अनादि संसार से चले आ रहे हैं; इसकारण जीव को द्रव्य-क्षेत्र-काल-भव-भाव पंचपरावर्तनरूप परिभ्रमण होता है । आत्मा के शुद्धभावरूपी तप द्वारा उस परिभ्रमण का नाश किया जाता है। इसलिए आत्मा के स्वभाव में एकाग्रता करनेरूप जो तप है, वही निश्चय से प्रायश्चित्त है।" यहाँ मात्र यही कहा गया है कि तप से शुभाशुभ कर्मों का नाश होता है और शुद्धात्मा की प्राप्ति होती है। इसलिए परमतप ही निश्चयप्रायश्चित्त है।।११८॥ इसके बाद टीकाकार मुनिराज एक छंद लिखते हैं; जो इसप्रकार है (मंदाक्रांता) प्रायश्चित्तं न पुनरपरं कर्म कर्मक्षयार्थ प्राहुः सन्तस्तप इति चिदानंदपीयूषपूर्णम् । आसंसारादुपचितमहत्कर्मकान्तारवह्नि ज्वालाजालं शमसुखमयं प्राभृतं मोक्षलक्ष्म्याः ॥१८९।। (भुजंगप्रयात) । ... रे रे अनादि संसार से जो समद्ध कर्मों का वन भयंकर। उसे भस्म करने में है सबल जो अर मोक्षलक्ष्मी की भेंट है जो॥ शमसुखमयी चैतन्य अमृत आनन्दधारा से जो लबालब। ऐसा जो तप है उसे संतगण सब प्रायश्चित कहते हैं निरन्तर॥१८९|| १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ९८८ २. वही, पृष्ठ ९८९
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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