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________________ नियमसार गाथा ११८ विगत गाथा में तपश्चरण को प्रायश्चित्त कहा था। उसी बात को इस गाथा में भी कह रहे हैं। गाथा मूलतः इसप्रकार है - णंताणंतभवेण समजियसुहअसुहकम्मसंदोहो। तवचरणेण विणस्सदि पायच्छित्तं तवं तम्हा ।।११८ ।। .. (हरिगीत) अनंत भव में उपार्जित सब कर्मराशि शुभाशुभ। भसम हो तपचरण से अतएव तप प्रायश्चित्त है।।११८|| विगत अनन्तानन्त भवों में उपार्जित शुभाशुभ कर्मराशि तपश्चरण से नष्ट होती है; इसलिए तप ही प्रायश्चित्त है। इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "यहाँ यह कहा गया है कि प्रसिद्ध शुद्धकारणपरमात्मतत्त्व में सदा अन्तर्मुख रहकर जो प्रतपन होता है, वह तप है और वह तप ही प्रायश्चित्त है। भावशुद्धि लक्षणवाले परमतपश्चरण से पंचपरावर्तनरूप पाँच प्रकार के संसार का संवर्धन करने में समर्थ अनादि संसार से ही उपार्जित द्रव्य-भावात्मक शुभाशुभ कर्मों का समूह विलय को प्राप्त होता है। इसलिए स्वात्मानुष्ठाननिष्ठ (निज आत्मा के आचरण में लीन) परमतपश्चरण ही शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्त है- ऐसा कहा गया है।" आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - “यहाँ नियमसार में प्रायश्चित्त, प्रतिक्रमण, आलोचना, तप, कायोत्सर्ग, सामायिक इत्यादिसभी क्रियायें शुद्ध चैतन्य के अवलम्बन से ही होती हैं। - यह कहा गया है । ये प्रायश्चित्तादि क्रियायें व्यवहार क्रियाओं से अथवा शुभराग से होती हैं - यह नहीं कहा।
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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