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गाथा ११७ : शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्ताधिकार मुक्ति परिणति इस परमात्मत्व में से ही प्रगट होती है । यह परमात्मतत्व संसारवृक्ष के मूल का नाश करनेवाला है । तथा इसका आश्रय करने से संसारवृक्ष का समूल नाश होकर मुक्ति की उत्पत्ति होती है।
इसप्रकार यहाँ संसार के मूल और मुक्ति के मूल – इन दो मूलों की चर्चा की है।
संसार का मूल उखाड़ने वाले परमात्मतत्त्व को मैं नमन करता हूँ।
परमात्मतत्त्व स्वयं त्रिकाली ध्रुव है तथा मुक्ति के उत्पाद का मूल है और संसार का व्यय करनेवाला है।'
यहाँ सिद्ध भगवान को परमात्मतत्त्व नहीं कहा; क्योंकि सिद्धदशा तो पर्याय है। उस सिद्धदशा का मूल कारण भी यह परमात्मतत्त्व ही है। अतः ऐसे परमात्मतत्त्व को मैं नमन करता हूँ तथा उसी की परिणति को एकाग्र करता हूँ।"
उक्त छन्द में; जिसका आवास मुनिराजों के चित्तकमल है; उस निजात्मारूप परमात्मतत्त्व को नमस्कार किया गया है; क्योंकि सभी मुनिराज निरन्तर उसका ही ध्यान करते हैं। उनके ध्यान का एकमात्र ध्येय वह भगवान आत्मा ही है। .. ... वह परमात्मतत्त्व मुक्तिकान्ता की रति के सुख का मूल है। तात्पर्य यह है कि उसमें अपनापन स्थापित करने से, उसके ज्ञान-श्रद्धानपूर्वक उसका ध्यान करने से मुक्ति में प्राप्त होनेवाले अतीन्द्रिय आनन्द की प्राप्ति होती है।
उक्त परमात्मतत्त्व के श्रद्धान, ज्ञान और ध्यान से संसाररूपी वृक्ष की तो जड़ ही उखड़ जाती है; अत: एकमात्र वही श्रद्धेय है, परमज्ञान का ज्ञेय और ध्यान का ध्येय भी वही है ।।१८८।।
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१. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ९८६ ... २. वही, पृष्ठ ९८६::