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________________ २१४ नियमसार अनुशीलन इस छन्द में आचार्यदेव कह रहे हैं कि अध्यात्मशास्त्रों के गंभीर अध्ययन से, उसमें प्रतिपादित भगवान आत्मा के स्वरूप को जानकर जो लोग उसमें ही अपनापन स्थापित करते हैं; वे तत्त्वज्ञानी जीव निश्चयरूप से परमसंयम को धारण कर मुक्ति को प्राप्त कर अनंतकाल तक अनंत अतीन्द्रिय आनन्द का उपभोग करते हैं।।१८७।। पाँचवाँ छन्द इसप्रकार है - (उपेन्द्रवज्रा) नमामि नित्यं परमात्मतत्त्वं मुनीन्द्रचित्ताम्बुजगर्भवासम् । विमुक्तिकांतारतसौख्यमूलं विनष्टसंसारद्रुममूलमेतत् ।।१८८।। (भुजंगप्रयात) भवरूप पादप जड़ का विनाशक। मुनीराज के चित कमल में रहे नित॥ अर मुक्तिकांतारतिजन्य सुख का। मूल जो आतम उसको नमन हो।।१८८|| मुनिराजों के चित्तकमल के भीतर जिसका आवास है, जो मुक्तिरूपी कान्ता की रति के सुख का मूल है और जिसने संसाररूपी वृक्ष के मूल (जड़) का नाश किया है; ऐसे इस परमात्मतत्त्व को मैं नित्य नमन करता हूँ। आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस छन्द के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - ___ "जैसे चंदन के वृक्ष में शीतलता के कारण सर्प उससे लिपटे रहते हैं; उसीप्रकार मुनिराज चैतन्यरूपी चंदनवृक्ष की शीतलता के कारण उससे लिपटे रहते हैं अर्थात् उसी में लीन रहते हैं। उनकी परिणति में एक परमात्मतत्त्व ही बस रहा है। वह परमात्मतत्त्व सादि-अनन्त परमानन्दमय मुक्ति का मूल है।
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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