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गाथा ११७ : शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्ताधिकार
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चौथा छन्द इसप्रकार है -
(उपजाति) अध्यात्मशास्त्रामृतवारिराशे
र्मयोद्धृता संयमरत्नमाला। बभूव या तत्त्वविदांसुकण्ठे ____सालंकृतिर्मुक्तिवधूधवानाम् ।।१८७।।
(भुजंगप्रयात ) जिनशास्त्ररूपी अमृत उदधि से। __ बाहर हुई संयम रत्नमाला ।। मुक्तिवधू वल्लभ तत्त्वज्ञानी।
के कण्ठ की वह शोभा बनी है।।१८७।। अध्यात्मशास्त्ररूपी अमृतसागर में से मेरे द्वारा जो संयमरूपी रत्नमाला निकाली गई है, वह रत्नमाला मुक्तिवधू के वल्लभ तत्त्वज्ञानियों के सुन्दर कण्ठ का आभूषण बनी है।
आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस छन्द का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - ___ “अध्यात्मशास्त्र अमृतसमुद्र है। आचार्यदेव ने उसमें से यह संयमरूपी रत्नमाला बाहर निकाली है। संयम अर्थात् वीतरागता ही समस्त शास्त्रों का तात्पर्य है। वीतरागी संयम दशा में ही प्रतिक्रमण, प्रायश्चित्त आदि सभी समा जाते हैं। परपदार्थ के लक्ष्य से रहित और स्वद्रव्य में एकाग्रतारूप वीतरागता ही सर्व शास्त्रों का सार है।
यह रत्नमाला तत्त्वज्ञानियों के कंठ का आभूषण है। तत्त्वज्ञानी जीव मुक्तिवधू के वल्लभ हैं तथा उनका आभूषण वीतरागी संयम है।
उनकी भावना में भी वीतरागता का ही घोलन होता है और कंठ में से ध्वनि भी वीतरागता की ही उठती है।"
१. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ९८५ २. वही, पृष्ठ ९८५