________________
२१२
नियमसार अनुशीलन इस छन्द के भाव को आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
“जो आत्मोपलब्धिरूप ज्ञानज्योति इन्द्रिय समूह के घोर अन्धकार का नाश करनेवाली है, कर्मवन से उत्पन्न दावानल के शिखाजाल का नाश करने के लिए समतारूपी जल की धारा बरसाती है। - ऐसी आत्मोपलब्धि यमियों, संयमियों को क्रमशः आत्मज्ञान से होती है।
जैसे जब बड़े-बड़े जंगलों में आग लग जाती है, तब उनकी आग साधारण पानी से नहीं बुझती, उसे बुझाने के लिए मूसलाधार वर्षा चाहिए; उसीप्रकार इस संसार में आकुलतारूपी अग्नि जल रही है, उसे बुझाने के लिए आत्मा की शुद्ध परिणति रूपी शान्त जल की जोरदार वर्षा चाहिए। ___ मुनिराज के अन्तर में ऐसी शान्त निराकुल उपशमरस झरती हुई परिणति प्रगट होती है, जिससे उनकी कषाय अग्नि बुझ जाती है। इसी आत्म-उपलब्धि का नाम प्रायश्चित्त है।" __उक्त छन्द का सार यह है कि निश्चयप्रायश्चित्त आत्मोपलब्धिरूप है और आत्मोपलब्धि त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा के श्रद्धान, ज्ञान और अनुभवरूप है।
यह आत्मोपलब्धि अर्थात् निश्चयप्रायश्चित्त पंचेन्द्रिय भोगों संबंधी घोर अंधकार का नाशक है और कर्मरूपी भयंकर जंगल में लगे हुए संसाररूपी दावानल की शिखाओं को शान्त करनेवाला है तथा उक्त दावानल अर्थात् भयंकर आग को बुझाने के लिए मूसलाधार बरसात है; क्योंकि जंगल में लगी आग को मूसलाधार बरसात के अलावा कौन बुझा सकता है ?
तात्पर्य यह है कि निश्चयप्रायश्चित्तरूप आत्मोपलब्धि ही विषयकषाय की आग को बुझा सकती है, अन्य कोई नहीं ।।१८६ ।।
१. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ९८३-९८४ २. वही, पृष्ठ ९८४