SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 218
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गाथा ११७ : शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्ताधिकार उक्त छन्द में स्वद्रव्य के चिन्तनात्मक धर्मध्यान और शुक्लध्यान को प्रायश्चित्त कहा है; जबकि महाशास्त्र तत्त्वार्थसूत्र में चिन्तन के निरोध ध्यान कहा है। यद्यपि धर्मध्यान के सभी भेद चिन्तनात्मक ही हैं, तथापि शुक्लध्यान तो मा चिंतह' - चिन्तवन मत करो के रूप में प्रतिष्ठित है । एक बात और भी है कि यहाँ प्रायश्चित्त को चिन्तनरूप कहकर भी निज महिमा में लीनतारूप भी कहा है । यह प्रायश्चित्त की महिमा वाचक छन्द है; अतः निश्चय - व्यवहार प्रायश्चित्त की संधि बिठाकर यथायोग्य समझ लेना चाहिए ।। १८५ । । तीसरा छन्द इसप्रकार है - २११ ( मंदाक्रांता ) आत्मज्ञानाद्भवति यमिनामात्मलब्धिः क्रमेण ज्ञानज्योतिर्निहतकरणग्रामघोरान्धकारा । कर्मारण्योद्भवदवशिखाजालकानामजस्रं प्रध्वंसेऽस्मिन् शमजलमयीमाशु धारां वमन्ती ।। १८६ ।। ( हरिगीत ) आत्म की उपलब्धि होती आतमा के ज्ञान से । मुनिजनों के करणरूपी घोरतम को नाशकर ॥ कर्मवन उद्भव भवानल नाश करने के लिए । वह ज्ञानज्योति सतत् शमजलधार को है छोड़ती ।। १८६ ।। संयमी जनों को आत्मज्ञान से क्रमशः आत्मोपलब्धि होती है । उस आत्मोपलब्धि ने ज्ञानज्योति द्वारा इन्द्रियसमूह के घोर अंधकार का नाश किया है और वह आत्मोपलब्धि कर्मवन से उत्पन्न भवरूपी दावानल की शिखाओं के समूह का नाश करने के लिए उस पर निरंतर समतारूपी जल की धारा को तेजी से छोड़ती है, बरसाती है। १. मा चिट्ठह मा जंपह मा चिंतह किं वि जेण होइ थिरो । अप्पा अप्पम्मिरओ इणमेव परं हवे झाणं ।। ५६ ।। बोल नहीं सोचो नहीं अर चेष्टा भी मत करो । उत्कृष्टतम यह ध्यान है निज आतमा में रत रहो ।। ५६ - द्रव्यसंग्रह, गाथा ५६
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy