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नियमसार अनुशीलन दूसरा छन्द इसप्रकार है -
(शालिनी) प्रायश्चित्तं ह्युत्तमानामिदंस्यात्
स्वद्रव्येऽस्मिन् चिन्तनं धर्मशुक्लम् । कर्मव्रातध्वान्तसद्बोधतेजो
लीनंस्वस्मिन्निर्विकारे महिम्नि ।।१८५ ।।
. (रोला) अरे प्रायश्चित्त उत्तम पुरुषों को जो होता।
धर्मध्यानमय शुक्लध्यानमय चिन्तन हैवह।। कर्मान्धकार का नाशक यह सद्बोध तेज है। . निर्विकार अपनी महिमा में लीन सदा है।।१८५|| उत्तम पुरुषों को होनेवाला यह प्रायश्चित्त वस्तुतः स्वद्रव्य का धर्मध्यान और शुक्लध्यानरूप चिन्तन है, कर्मसमूह के अंधकार को नष्ट करने के लिए सम्यग्ज्ञानरूपी तेज है और अपनी निर्विकार महिमा में लीनतारूप है।
आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस छन्द का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - ___ “जो स्वद्रव्य का धर्मध्यान और शुक्लध्यानरूप चिन्तन है, कर्मसमूह के अंधकार को नष्ट करने के लिए जो सम्यग्ज्ञानरूपी सूर्य है
और अपनी निर्विकार महिमा में लीन है - ऐसा यह प्रायश्चित्त वास्तव में उत्तम पुरुषों को होता है।
पर के लक्ष्य से उत्पन्न होनेवाले पुण्य-पाप भाव दोष हैं तथा स्वद्रव्य के चिन्तन से प्रगट होनेवाली निर्मलपर्याय प्रायश्चित्त है।
चैतन्य में ही चेतना की एकाग्रता होना स्वद्रव्य का चिन्तन है। इसमें राग नहीं है, इसलिए यह प्रायश्चित्तस्वरूप है तथा यही प्रायश्चित्त सम्यग्दर्शन सहित चारित्र है, जो कि उत्तम पुरुषों को होता है।" १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ९८२-९८३ २. वही, पृष्ठ ९८३ ३. वही, पृष्ठ ९८३