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________________ २०९ गाथा ११७ : शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्ताधिकार (दोहा) अनशनादि तपचरणमय और ज्ञान से गम्य। अघक्षयकारण तत्त्वनिज सहजशुद्धचैतन्य।।१८४|| - अनशनादि तपश्चरणात्मक सहज शुद्ध चैतन्यस्वरूप को जानने वालों को सहज ज्ञानकला के गोचर सहजतत्त्वरूप भगवान आत्मा पुण्य-पाप के क्षय का कारण है। आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस छन्द का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - ___“जब वर्तमान निर्मलपर्याय त्रिकाली तत्त्व में ढलकर, उसे अनुभवगोचर करती है; तब पुण्य-पाप का क्षय हो जाता है - यही प्रायश्चित्त है। निर्दोष त्रिकाली आत्मस्वभाव के आश्रय से जो निर्विकल्प ज्ञान प्रगट होता है, वह प्रायश्चित्त है। अपने सहज शुद्धात्म तत्त्व को जानना ही सच्ची कला है। सम्यग्ज्ञान द्वारा जाना गया त्रिकाली सहजतत्त्व विकार के क्षय का कारण है।" ___ ध्यान रहे यहाँ अघ शब्द का प्रयोग पुण्य और पाप-दोनों के अर्थ में किया गया है; क्योंकि शुद्धात्मा के ध्यानरूप निश्चयप्रायश्चित्त पुण्य और पाप- दोनों का नाश करनेवाला है। __ जिसप्रकार क का अर्थ पृथ्वी, ख का अर्थ आकाश होता है; उसीप्रकार घ का अर्थ भगवान आत्मा होता है। घ अर्थात् भगवान आत्मा की विराधना का जो भी कारण बने, वह सभी अघ हैं। चूंकि पुण्य और पाप दोनों ही आत्मा के विराधक भाव हैं; अतः वे अघ हैं। __यद्यपि सामान्य लोक में अघ शब्द का अर्थ पाप किया जाता है; तथापि अध्यात्मलोक में अघ का अर्थ और पुण्य और पाप दोनों होता है।।१८४॥ १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ९८२
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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