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________________ २०८ नियमसार अनुशीलन वीतरागता बढ़ती जाती है। इसलिए वही सभी आचरणों में उत्तम आचरण है और वही प्रायश्चित्त है । स्वभावसन्मुख होकर उसकी भावना में लीन होना ही सभी आचरणों में श्रेष्ठ आचरण है। इसके सिवाय राग या पंच महाव्रत की बाह्य क्रियायें वास्तव में परम आचरण नहीं हैं। मुनिराज को शुभ विकल्पों के समय भी स्वभाव में जितनी स्थिरता वर्तती है, उतना निश्चयप्रायश्चित्त होता है और वह कर्मक्षय कारण है। व्यवहार तप के काल में भी कर्मों का अभाव होकर जो वीतरागता हुई है, वही कर्मक्षय का कारण है और वही निश्चयप्रायश्चित्त है। जितनी वीतरागता है, उतना निश्चयप्रायश्चित्त है। मुनिराज को प्रतिक्षण होनेवाली स्वभाव की भावना से कर्मों का क्षय हो जाता है। पर्याय जब अंतर में ढलती है, तभी भावकर्म और द्रव्यकर्म का अनादिकालीन प्रवाह टूट जाता है, इसलिए उस पर्याय को ही प्रायश्चित्त जानना चाहिए।" इसप्रकार इस गाथा में यही कहा गया है कि अधिक विस्तार में जाने से क्या लाभ है और एक ही बात बार-बार दुहराने से भी क्या उपलब्ध होनेवाला है ? समझने की बात तो एकमात्र यही है कि मुनिअवस्था में होनेवाली तीन कषाय के अभावरूप वीतरागपरिणति और शुद्धोपयोगरूप धर्म ही निश्चयप्रायश्चित्त है।।११७।। इसके बाद टीकाकार मुनिराज पाँच छन्द लिखते हैं। उनमें से पहला छन्द इसप्रकार है (द्रुतविलंबित) अनशनादितपश्चरणात्मकं सहजशुद्धचिदात्मविदामिदम् । सहजबोधकलापरिगोचरं सहजतत्त्वमघक्षयकारणम् ।।१८४ ।। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ९८० २. वही, पृष्ठ ९८०
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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