________________
नियमसार गाथा ११७ विगत गाथा में आत्मज्ञान एवं आत्मध्यान ही प्रायश्चित्त है - यह कहने के उपरान्त अब इस गाथा में यह कहते हैं कि मुनियों का तपश्चरण ही प्रायश्चित्त है । गाथा मूलत: इसप्रकार है -
किं बहुणा भणिएण दुवरतवचरणं महेसिणं सव्वं । पायच्छित्तं जाणह अणेयकम्माण खयहेऊ॥११७॥
(हरिगीत ) कर्मक्षय का हेतु जो है ऋषिगणों का तपचरण ।
वह पूर्ण प्रायश्चित्त है इससे अधिक हम क्या कहें।।११७|| अधिक कहने से क्या लाभ है ? इतना कहना ही पर्याप्त है कि अनेक कर्मों के क्षय का हेतु जो महर्षियों का तपश्चरण है, उस सभी को प्रायश्चित्त जानो।
इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
“यहाँ परमतपश्चरण में लीन परमजिनयोगीश्वरों को निश्चयप्रायश्चित्त है। इसप्रकार निश्चयप्रायश्चित्त ही समस्त आचरणों में परम आचरण है - ऐसा कहा है।
बहुत असत् प्रलापों से बस होओ, बस होओ। निश्चय-व्यवहार स्वरूप परमतपश्चरणात्मक, परमजिनयोगियों को अनादि संसार से बंधे हुए द्रव्य-भावकों के सम्पूर्ण विनाश का कारण, एकमात्र शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्त है - इसप्रकार हे शिष्य तू जान।" ___ आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
"जो स्वभाव की भावना भाकर परम तपश्चरण में लीन हुए हैं - ऐसे वीतरागी मुनियों को निश्चयप्रायश्चित्त होता है। उनकी दशा ही प्रायश्चित्त स्वरूप है। द्रव्यस्वभाव में ढली हुई पर्याय में प्रतिक्षण