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गाथा ११९ : शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्ताधिकार
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उनके आश्रय से मोक्ष की भी प्राप्ति नहीं होती। यद्यपि वे प्राप्त करने की अपेक्षा से तो उपादेय हैं, पर ध्यान के ध्येय नहीं हैं। इस सब कथन का सार यह है कि उक्त परमभावरूप निजकारणपरमात्मा के ध्यान में सभी धर्म समा जाते हैं; अतः उक्त ध्यान ही निश्चयप्रायश्चित्त है | | ११९|| इसके बाद टीकाकार मुनिराज एक छंद लिखते हैं, जो इसप्रकार है(मंदाक्रांता )
यः शुद्धात्मन्यविचलमनाः शुद्धमात्मानमेकं नित्यज्योति: प्रतिहततमः पुंजमाद्यन्तशून्यम् । ध्यात्वाजस्रं परमकलया सार्धमानन्दमूर्ति जीवन्मुक्तो भवति तरसा सोऽयमाचारराशिः । । १९० । ( रोला )
परमकला युत शुद्ध एक आनन्दमूर्ति है। तमनाशक जो नित्यज्योति आद्यन्त शून्य है | उस आम को जो भविजन अविचल मनवाला ।
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ध्यावे तो वह शीघ्र मोक्ष पदवी को पाता ||१९०|| आदि - अंत रहित और परमकला सहित, नित्यज्योति द्वारा अंधकार समूह का नाशक, एक, शुद्ध और आनन्दमूर्ति आत्मा को जो जीव शुद्ध आत्मा में अविचल मनवाला होकर निरंतर ध्याता है; वह चारित्रवान जीव शीघ्र जीवन्मुक्त होता है।
इस छन्द के भाव को स्पष्ट करते हुए स्वामीजी कहते हैं'आत्मध्यान में स्थिर होना ही असली चारित्र है - ऐसा असली चारित्र धारण करनेवाला जीव अल्पकाल में पूर्ण मुक्तदशा प्राप्त कर लेता है - ऐसा ही वस्तुस्वरूप है । "
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इस छन्द में मात्र इतना ही कहा है कि जो भव्यजीव शुद्ध आत्मा में अटूट श्रद्धा रखनेवाला है; वह भव्यजीव जब आदि - अंतरहित, आनन्द मूर्ति एक आत्मा का ध्यान करता है तो निश्चितरूप से अति शीघ्र मुक्तिपद प्राप्त करता है || १९० ॥
१. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ९९८