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नियमसार अनुशीलन इसके उपरान्त टीकाकार मुनिराज एक छन्द लिखते हैं, जो इस प्रकार है -
(मंदाक्रांता) प्रायश्चित्तं भवति सततं स्वात्मचिंता मुनीनां मुक्तिं यान्ति स्वसुखरतयस्तेन निर्धूतपापाः । अन्या चिंता यदि चयमिनांते विमूढाः स्मरार्ताः पापा: पापं विदधति मुहुः किं पुनश्चित्रमेतत् ।।१८०।।
a (हरिगीत) मुनिजनों के चित्त में जो स्वात्मा का निरन्तर हो रहा है चिन्तवन बस यही प्रायश्चित्त है ।। वे सन्त पावें मुक्ति पर जो अन्य-चिन्तामूढ हों।
कामात वे मुनिराज बाँधे पाप क्या आश्चर्य है ? ||१८०|| मुनिराजों के चित्त में निरन्तर होनेवाला स्वात्मा का चिन्तवन ही प्रायश्चित्त है । निजसुख में रतिवाले वे मुनिराज उक्त प्रायश्चित्त के द्वारा पापों को धोकर मुक्ति प्राप्त करते हैं। यदि मुनिराजों को अपने आत्मा के अतिरिक्त अन्य चिन्ता हो, अन्य पदार्थों का ही चिन्तवन हो; तो वे विमूढ, कामात एवं पापी मुनिराज पुनः पाप को उत्पन्न करते हैं - इसमें क्या आश्चर्य है ? ____ आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस छन्द का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
"जितने आस्रवभाव हैं, वे सभी आत्मा के स्वभाव से विरुद्ध हैं; इसलिए वे पाप हैं। जो निजस्वभाव सुख के आनंदानुभव में लीन हुए हैं, वे मुनिभगवन्त वीतरागी परणति रूप प्रायश्चित्त द्वारा पुण्य-पाप रहित मुक्तदशा प्राप्त करते हैं अर्थात् सादि अनन्तकाल तक अपने स्वरूपमहल में विराजमान रहते हैं।
जो अपने स्वभाव की भावना छोड़कर अपने स्वभाव से विपरीत
१. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ९६३