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________________ गाथा ११३ : शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्ताधिकार १९१ स्वभाव के अवलम्बन से उत्पन्न विशेष निर्विकारी परणति का नाम प्रायश्चित्त है। अब कहते हैं कि ऐसा शुद्ध प्रायश्चित्त वीतरागी मुनिराजों को निरंतर कर्त्तव्यस्वरूप है । अहो ! मुनिराजों की अन्तरपरिणति में प्रचुर वीतरागता प्रगट हुई है, इसलिए उनके मुख में से जो वाणी निकलती है, वह परमागम है। राग-द्वेष रहित वीतरागी पुरुष की वाणी परमागम है । ' यहाँ टीका में अपनी मुनिदशा का वर्णन करके मुनिदशा का वास्तविक स्वरूप बताया गया है । ३" उक्त गाथा और उसकी टीका में पंच महाव्रत, पाँच समिति, शील और इन्द्रियों के तथा मन-वचन-काय के संयमरूप परिणामों तथा पंचेन्द्रियों के निरोधरूप परिणति को प्रायश्चित्त कहा है। उक्त संदर्भ में स्वामीजी का कहना है कि यहाँ महाव्रतादि में शुभभावरूप महाव्रतादि कोन लेकर वीतरागभावरूप महाव्रतादि को लेना चाहिए; क्योंकि निश्चयप्रायश्चित्त वीतरागभावरूप ही होता है। टीका के उत्तरार्द्ध में टीकाकार, मुनिराज ने निश्चयप्रायश्चित्तधारी मुनिराज की जो प्रशंसा की है, वह परमवीतरागी मुनिराजों के सम्यक् स्वरूप का ही निरूपण है। उसके साथ स्वयं के नाम को जोड़ देने से ऐसा लगता है कि मुनिराज स्वयं की प्रशंसा कर रहे हैं; परन्तु वे अपने बहाने परम वीतरागी भावलिंगी सच्चे मुनिराजों के स्वरूप का ही वर्णन कर रहे हैं। उनके उक्त कथन को आत्मश्लाघा के रूप में न देखकर आत्मविश्वास के रूप में ही देखा जाना चाहिए । 'मेरे मुख से परमागम का मकरंद झरता है' - यह कथन न केवल उनके अध्यात्मप्रेम को प्रदर्शित करता है; अपितु उनके अध्यात्म के प्रति समर्पण भाव को भी सिद्ध करता है ।। ११३।। ३. वही, पृष्ठ ९६२ १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ९६१ २. वही, पृष्ठ ९६२
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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