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नियमसार अनुशीलन
पाँच महाव्रत, पाँच समिति, शील और सभी इन्द्रियों के तथा मन-वचन-काय के संयमरूप परिणाम एवं पंचेन्द्रिय के निरोधरूप परिणति विशेष प्रायश्चित्त है । प्राय: प्रचुररूप से निर्विकार चित्त ही प्रायश्चित्त है ।
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अन्तर्मुखाकार परमसमाधि से युक्त, परमजिनयोगीश्वर, पापरूपी अटवी (भयंकर जंगल) को जलाने के लिए अग्नि के समान, पाँच इन्द्रियों के विस्तार से रहित, देहमात्र परिग्रह के धारी, सहजवैराग्यरूपी महल के शिखर के शिखामणि समान और परमागमरूपी मकरंद (पुष्प रस) झरते हुए मुखवाले पद्मप्रभ को यह निरन्तर करने योग्य है, कर्त्तव्य है । आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
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" इस गाथा में कथित व्रतादिक के परिणाम रागरहित जानना चाहिए, क्योंकि यह निश्चय प्रायश्चित्त का कथन है ।
त्रिकाली शुद्धात्मस्वभाव के अवलम्बनपूर्वक रागादिभाव की उत्पत्ति ही न होना निश्चय से अहिंसाव्रत है । सत्स्वरूप ध्रुवस्वभाव के आश्रय से उत्पन्न वीतरागभाव ही परमार्थ से सत्यव्रत है । अखण्ड आत्मस्वभाव से प्राप्त वीतरागी परणति के अलावा अन्य रागादिभाव का ग्रहण नहीं करना ही निश्चय से अचौर्यव्रत है । ब्रह्मस्वरूप आत्मा में चरना ही वास्तविक ब्रह्मचर्यव्रत है और उसी चिदानन्दस्वरूप में लीन होकर राग के एक अंश को भी ग्रहण नहीं करना निश्चय से अपरिग्रहव्रत है । -
ऐसे वीतरागी पंचमहाव्रतरूप परिणाम स्वयं ही निश्चय से प्रायश्चित स्वरूप हैं ।
इसीप्रकार ईर्ष्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपण तथा प्रतिष्ठापना - ये पाँचों समिति भी निश्चय से आत्मा के अवलम्बनस्वरूप वीतरागभाव ही हैं और इसका नाम ही निश्चय प्रायश्चित्त है । '
१. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ९६१