________________
८
शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्ताधिकार
( गाथा ११३ से गाथा १२१ तक) नियमसार गाथा ११३
विगत सात अधिकारों में क्रमशः जीव, अजीव, शुद्धभाव, व्यवहारचारित्र, परमार्थप्रतिक्रमण, निश्चयप्रत्याख्यान और परमआलोचना की चर्चा हुई। अब इस आठवें अधिकार में शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्त की चर्चा करते हैं ।
इस अधिकार की पहली और नियमसार की ११३वीं गाथा की उत्थानिका लिखते हुए तात्पर्यवृत्ति टीका में लिखते हैं -
66
'अब समस्त द्रव्यकर्म, भावकर्म तथा नोकर्म के संन्यास के हेतुभूत शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्त अधिकार कहा जाता है।"
गाथा मूलतः इसप्रकार है
वदसमिदिसीलसंजमपरिणामो करणणिग्गहो भावो । सो हवदि पायछित्तं अणवरयं चेव कायव्वो ।। ११३ ।। ( हरिगीत )
जो शील संयम व्रत समिति अर करण निग्रहभाव हैं।
सतत् करने योग्य वे सब भाव ही प्रायश्चित्त हैं ।। ११३ || व्रत, समिति, शील और संयमरूप परिणाम तथा इन्द्रियनिग्रहरूप भाव प्रायश्चित्त है और वह प्रायश्चित्त निरंतर कर्तव्य है, करने योग्य कार्य है।
इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
-
"यह निश्चयप्रायश्चित्त के स्वरूप का कथन है ।