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दूसरा छन्द इसप्रकार है
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नियमसार अनुशीलन
( वसंततिलका) आलोचना सततशुद्धनयात्मिका या निर्मुक्तिमार्गफलदा यमिनामजस्रम् ।
शुद्धात्मतत्त्वनियताचरणानुरूपा
स्यात्संयतस्य मम सा किल कामधेनुः ।। १७२ ।। (रोला )
संयमधारी सन्तों को फल मुक्तिमार्ग का । जो देती है और स्वयं के आत्मतत्त्व में | नियत आचरण के अनुरूप आचरणवाली |
वह आलोचना मेरे मन को कामधेनु हो ।।१७२ || आलोचना संयमी सन्तों को निरन्तर मोक्षमार्ग का फल देनेवाली है, शुद्ध आत्मतत्त्व में नियत आचरण के अनुरूप है, निरन्तर शुद्धनयात्मक है; वह आलोचना मुझ संयमी को वस्तुतः कामधेनुरूप हो ।
इस छन्द में टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव यह भावना. व्यक्त करते हैं कि जो आलोचना आत्मतत्त्व के अनुरूप आचरणवाली है, मोक्षमार्ग का फल देनेवाली है; वह शुद्धनयात्मक आलोचना मुझ संयमी को कामधेनु जैसी फल देनेवाली हो ।
ध्यान रहे जिसप्रकार लोक में चिन्तामणिरत्न को चिन्ताओं को हरनेवाला, कल्पवृक्ष को इच्छानुसार फल देनेवाला माना जाता है; उसी प्रकार कामधेनु गाय को सभी कामनायें पूरी करनेवाला माना गया है ।।१७२ ॥
तीसरा छन्द इसप्रकार है -
( शालिनी )
शुद्धं तत्त्वं बुद्धलोकत्रयं यद्
बुद्ध्वा बुद्ध्वा निर्विकल्पं मुमुक्षुः । तत्सिद्ध्यर्थं शुद्धशीलं चरित्वा
सिद्धिं यायात् सिद्धिसीमन्तिनीशः ।।१७३ ।।