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गाथा ११२ : परमालोचनाधिकार
१७९ यहाँ काम-वासना को मद कहा गया है। मान का स्वरूप स्पष्ट करते हुए छह बिन्दु रखे गये हैं। पूज्यत्व, कुल-जाति संबंधी विशुद्धि, सुभटपना, सम्पत्ति, ऋद्धियाँ और शारीरिक सुन्दरता के कारण होनेवाले अभिमान को मान कहा है।
इसीप्रकार व्यवहारनय से योग्यस्थान में धन व्यय के अभाव को और निश्चयनय से निज शुद्धात्मा को छोड़कर अन्य परमाणुमात्र परद्रव्य के स्वीकार को लोभ कहा गया है।।११२।। __ इस परम-आलोचना अधिकार की अन्तिम गाथा की टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज नौ छन्द लिखते हैं, जिनमें पहला छन्द इसप्रकार है -
(मालिनी) अथ जिनपतिमार्गालोचनाभेदजालं
परिहतपरभावो भव्यलोकः समन्तात् । तदखिलमवलोक्य स्वस्वरूपंच बुद्ध्वा स भवति परमश्रीकामिनीकामरूपः॥१७१।।
(हरिगीत ) जिनवर कथित आलोचना के भेद सब पहिचान कर। भव्य के श्रद्धेय ज्ञायकभाव को भी जानकर।। जो भव्य छोड़े सर्वतः परभाव को पर जानकर।
हो वही वल्लभ परमश्री का परमपद को प्राप्त कर॥१७१|| जो भव्यलोक जिनेन्द्र भगवान के मार्ग में कहे गये आलोचना के समस्त भेदजाल को देखकर तथा निजस्वरूप को जानकर सर्व ओर से परभावों को छोड़ता हूँ; वह परमश्रीरूपी कामिनी का वल्लभ होता है।
इस छन्द में सम्यक् आलोचना का फल मुक्ति की प्राप्ति होना बताया गया है। कहा गया है कि जो भव्यजीव जैनमार्ग में बताये गये आलोचना का स्वरूप भलीभाँति जानता है और तदनुसार परभावों को छोड़ता है; वह मुक्ति प्राप्त करता है।।१७१||