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________________ नियमसार अनुशीलन १७८ लावण्य रस के विस्तार से होनेवाला आत्म- अहंकार मान है । 1 गुप्त पाप से माया होती है। योग्य स्थान पर धन व्यय नहीं करना लोभ है। निश्चय से समस्त परिग्रह का परित्याग जिसका लक्षण है ऐसे निरंजन निज परमात्मतत्त्व के परिग्रह से अन्य परमाणुमात्र द्रव्य का स्वीकार लोभ है । इन चारों भावों से रहित शुद्धभाव ही भावशुद्धि है - ऐसा भव्यजीवों को; लोकालोकदर्शी परमवीतराग सुखरूपी अमृत के पीने से तृप्त अरहंत भगवानों ने कहा है ।" आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - - “त्रिलोकीनाथ अरहंत परमात्मा कहते हैं कि हे भव्य ! तुम्हारा आत्मा स्वभाव से ही मद, मान, माया, लोभ इत्यादि समस्त विकाररहित ज्ञानमूर्ति है । - ऐसे ज्ञानमूर्ति आत्मस्वभाव की दृष्टिपूर्वक – उसमें स्थिर भावशुद्धि है । भावशुद्धि का अर्थ - चैतन्य स्वभाव के आश्रय से मद, मान, माया, लोभ इत्यादि विकारीभावों का नाश करना है । ' चैतन्यद्रव्य परद्रव्य से भिन्न स्वयं प्रतापवंत है । आत्मा में इच्छाओं का अंश भी नहीं है । - ऐसे चैतन्यतत्त्व की दृष्टि और लीनता से प्रगट हुआ विकार रहित निर्विकारीभाव ही भावशुद्धि है। लोकालोक को एक साथ जाननेवाले सर्वज्ञ परमात्मा अरहंतदेव की दिव्यध्वनि में भव्यजीवों के हितार्थ यह भावशुद्धि की बात आई है। ऐसी भावशुद्धि अन्तरंग निज परमात्मतत्त्व के आश्रय से प्रगट होती है तथा यही संवर एवं आलोचना है । २" माया इस गाथा और इसकी टीका में भावशुद्धि नामक परम-आलोचना का स्वरूप स्पष्ट करते हुए मात्र यही कहा गया है कि मद, मान, और लोभ रहित परिणाम ही भावशुद्धि है । टीका में मद, मान, 1 माया और लोभ का स्वरूप उक्त प्रकरण के संदर्भ में स्पष्ट किया गया है । १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ९४१ २. वही, पृष्ठ ९४६
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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