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नियमसार गाथा ११२ विगत गाथाओं में परम-आलोचना के आलोचन, आलुंछन और अविकृतिकरण – इन भेदों की चर्चा की गई है; अब इस गाथा में चौथा भेद भावशुद्धि की चर्चा करते हैं। गाथा मूलत: इसप्रकार है -
मदमाणमायलोहविवज्जियभावो दुभावसुद्धि त्ति। परिकहियं भव्वाणं लोयालोयप्पदरिसीहिं ।।११२।।
__(हरिगीत ) . मदमानमायालोभ विरहित भाव को जिनमार्ग में।
भावशुद्धि कहा लोक-अलोकदर्शी देव ने ॥११२।। मद, मान, माया और लोभ रहित भाव भावशुद्धि है - ऐसा भव्यों से लोकालोक को देखनेवालों ने कहा है।
इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
“यह भावशुद्धि नामक परम-आलोचना के स्वरूप द्वारा शुद्धनिश्चय आलोचना अधिकार के उपसंहार का कथन है।
तीव्र चारित्रमोह के उदय के कारण पुरुषवेद नामक नोकषाय का विलास मद है। यहाँ मद का अर्थ मदन अर्थात् कामविलास है।
वैदर्भी रीति में किये गये चतुरवचनरचनावाले कवित्व के कारण, आदेय नामक नामकर्म का उदय होने पर समस्त जनों द्वारा पूज्यत्वपने से; माता-पिता संबंधी कुल-जाति की विशुद्धि से; ब्रह्मचर्य व्रत द्वारा उपार्जित शतसहस्त्रकोटिभट' सुभट समान निरुपम बल से; दानादि शुभकर्म द्वारा उपार्जित सम्पत्ति की वृद्धि के विलास से; बुद्धि, बल, विक्रिया, औषधि, रस, बल और अक्षीण - इन सात ऋद्धियों से अथवा सुन्दर कामनियों के लोचन को आनन्द प्राप्त करानेवाले शरीर १.शत सहस्त्र माने एक लाख और कोटि माने करोड़ - इसप्रकार एक लाख करोड़ योद्धाओं के बराबर बल धारण करनेवाले को शतसहस्त्रकोटिभट कहते हैं।