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गाथा ११२ : परमालोचनाधिकार
(रोला) तीन लोक के ज्ञायक निर्विकल्प तत्त्व को।
__ जो मुमुक्षुजन जान उसी की सिद्धि के लिए।। शुद्ध शील आचरे रमे निज आतम में नित।
सिद्धि प्राप्त कर मुक्तिवधु के स्वामी होते॥१७३|| मुमुक्षु जीव तीन लोक को जाननेवाले शुद्ध निर्विकल्पतत्त्व को भलीभाँति बारंबार जानकर, उसकी सिद्धि के लिए शुद्ध शील का आचरण करके सिद्धिरूपी स्त्री का स्वामी होता है, सिद्धि को प्राप्त. करता है।
उक्त छन्द का भाव आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - ___ “सिद्ध समान शुद्ध निजात्मा की भावना तथा अनुभव करनेवाला जीव वास्तविक मुमुक्षु है। पुण्य की भावना करनेवाले को वास्तविक मुमुक्षु नहीं कहते हैं। अविरत सम्यग्दृष्टि, देशविरति श्रावक, महाव्रती मुनिराज तीनों मुमुक्षु हैं।' ___ यहाँ पर पर्याय को गौण करके त्रिकाली द्रव्यदृष्टि की अपेक्षा ऐसा कहा है कि ज्ञानी मुमुक्षु जीव तीन लोक को जाननेवाले ऐसे निर्विकल्प शुद्धात्मतत्त्व को यथार्थपने जानता है और पश्चात् उसी में लीन होकर मुक्ति प्राप्त करता है। इसमें ज्ञान तथा चारित्र दोनों की बात कही है।
अपने शुद्धात्मा का ज्ञान और उसमें लीनता - इसके अलावा दूसरा कोई सिद्धि का उपाय मुमुक्षुओं को है ही नहीं। सभी जीव इसी रीति से सिद्धि प्राप्त करते हैं।"
इसप्रकार इस छन्द में यही कहा गया है कि सर्वज्ञस्वभावी भगवान आत्मा का ज्ञान, श्रद्धान और उसी में लीनतारूप चारित्र ही मुक्ति का मार्ग है, मोक्ष प्राप्त करने का सच्चा उपाय है।।१७३||
१. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ९४९ २. वही, पृष्ठ ९५०-९५१