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________________ १७० तीसरा और चौथा छन्द इसप्रकार है - - नियमसार अनुशीलन ( वसंततिलका) संसारघोरसहजादिभिरेव रौद्रैदुःखादिभि: प्रतिदिनं परितप्यमाने । लोके शमामृतमयीमिह तां हिमानीं यायादयं मुनिपतिः समताप्रसादात् ।। १६४।। मुक्तः कदापि न हि याति विभावकार्यं तद्धेतुभूतसुकृतासुकृतप्रणाशात् । तस्मादहं सुकृतदुष्कृतकर्मजालं मुक्त्वा मुमुक्षुपथमेकमिह व्रजामि ।। १६५ ।। ( रोला ) अरे सहज ही घोर दुःख संसार घोर में प्रतिदिन तपते जीव अनंते घोर दुःखों से । किन्तु मुनिजन तो नित समता के प्रसाद से । अरे शमामृत हिम की शीतलता पाते हैं ।। १६४|| रे विभावतन मुक्त जीव तो कभी न पाते । क्योंकि उन्होंने सुकृत- दुष्कृत नाश किये हैं । इसीलिए तो सुकृत- दुष्कृत कर्मजाल तज । अरे जा रहा हूँ मुमुक्षुओं के मारग में || १६५ || घोर संसार में सहज ही होनेवाले भयंकर दुःखों से प्रतिदिन परितप्त होनेवाले इस लोक में मुनिराज समताभाव के प्रसाद से समतारूपी अमृतमयी बर्फ के ढेर जैसी ठंडक अर्थात् शान्ति प्राप्त करते हैं । मुक्तजीव विभावरूप काय (शरीर) को कभी प्राप्त नहीं होते; क्योंकि उन्होंने शरीर संयोग के हेतुभूत सुकृत (पुण्य) और दुष्कृत (पाप) का नाश कर दिया है । इसलिए अब मैं सुकृत और दुष्कृत कर्मा को छोड़कर एक मुमुक्षुमार्ग में जाता हूँ । इन छन्दों के भाव को आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी -
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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