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________________ गाथा १११ : परमालोचनाधिकार १६९ उसीप्रकार यह भगवान आत्मा स्वयं में ही जो शम-दम आदि गुणरूपी कमलनी हैं; उनके साथ क्रीड़ा करता है। यहाँ आत्मा के द्रव्यस्वभाव को सरोवर, उसमें रहनेवाले गुणों को कमलनी और वर्तमान निर्मल पर्याय को राजहंस के स्थान पर रखा गया है। तात्पर्य यह है कि निर्मल पर्याय के धनी ज्ञानीजन अपने आत्मा में विद्यमान गुणों के साथ ही केलि किया करते हैं। उन्हें बाहर निकलने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। ___ यहाँ मैं आपका ध्यान एक बात की ओर विशेष खींचना चाहता हूँ कि यहाँ 'शमदमगुणाम्भोजनी' पद है, जिसका अर्थ शम-दम गुणरूपी कमलनी ही हो सकता है, कमल नहीं। हंस का कमल के साथ क्रीड़ा करने के स्थान पर कमलनी के साथ क्रीड़ा की बात ही अधिक उपयुक्त लगती है। पहले छन्द में बाहर निकलने की आवश्यकता नहीं पड़ती; क्योंकि अतीन्द्रिय आनन्द की सभी सामग्री अन्दर विद्यमान है - यह कहा है और दूसरे छन्द में स्वयं स्वयं में ही प्रकाशित होता रहता है - यह कहा है । तात्पर्य यह है कि उसे प्रकाशित होने के लिए भी पर की आवश्यकता नहीं है। ___ इसप्रकार यह भगवान आत्मा स्वयं में ही परिपूर्ण है, उसे अन्य की कोई आवश्यकता नहीं। यहाँ प्रश्न हो सकता है कि जब आपने कमलनी अर्थ किया ही है तो फिर इस स्पष्टीकरण की क्या आवश्यकता है ? ___ अरे भाई! अबतक शमदमगुणाम्भोजनि का अर्थ शम-दमगुणरूपी कमल किया जाता रहा है। अम्भोज का अर्थ होता है कमल। जिसकी उत्पत्ति अंभ माने जल में हो, वह अम्भोज । अम्भोज का स्त्री लिंग अम्भोजनि हुआ। इसप्रकार अम्भोजनि का अर्थ कमलनी होता है।।१६२-१६३।।
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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