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गाथा १११ : परमालोचनाधिकार
१७१ इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
"त्रिकाली आत्मा त्रिकाल सहज सुखमय है और इससे विरुद्ध उक्त विकारभाव संसार है, वह सहज दुःखमय ही है। विकार स्वयं तो दुःखरूप है ही और उसमें भी असाता के वेदन से घोर दुःखमय है। पर का आश्रय दुःख ही है। चिदानंदस्वभाव के अलावा इस जगत में दूसरा कोई भी सुखमय अथवा सुखकारी नहीं है। साता के वेदन का भाव भी दुःखरूप ही है – ऐसा नक्की करके चैतन्यसन्मुख होने पर ही दुःख का अभाव होकर सहज शान्ति प्रगट होती है।
जितना पर के आश्रय का भाव है, वह सभी जमशेदपुर की भट्टी जैसा दुःख से सुलगा हुआ संसार है और इससे विरुद्ध चैतन्यमूर्ति आत्मा परम शीतलस्वरूप सुखशांति का पिण्ड है। उसके आश्रय से मुनिराज अकषायी वीतरागी हिमराशि को प्राप्त करते हैं।
देखो, इस संसार के दुःख से छूटने का उपाय! अन्तरंग में उपशम रस के कंदस्वरूप भगवान आत्मा में स्थिर होना ही दुःख से छूटने का उपाय है; क्योंकि वहाँ शान्ति है। मुनिराज समता के प्रसाद से उस परमसुखमय शान्ति को प्राप्त करते हैं। __ अब आचार्य कहते हैं कि मुक्त जीवों की तरह मैं भी समस्त सुकृत
और दुष्कृत कर्मजाल को छोड़कर मोक्षमार्ग पर आरूढ़ होता हूँ।२ __ जिस मार्ग पर मुमुक्षु चले हैं, उसी मार्ग पर मैं भी जाता हूँ; क्योंकि जितने जीव सिद्ध हुए हैं, उन सभी ने सुकृत तथा दुष्कृत के अभावपूर्वक
चैतन्यस्वभाव में स्थिर होकर मुक्तदशा प्राप्त की है। यही एक मार्ग है। __सभी मुमुक्षुओं के लिए मुक्ति का मार्ग एक ही है । बाह्य पदार्थों पर लक्ष्य करना मुक्तिमार्ग नहीं है। अन्तरस्वभाव के निर्णयपूर्वक, उसमें एकाग्र होना ही मुक्तिमार्ग है।"
१. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ९३१ २. वही, पृष्ठ ९३२
३. वही, पृष्ठ ९३३