SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 171
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६४ नियमसार अनुशीलन ( हरिगीत ) इस जगतजन की ज्ञानज्योति अरे काल अनादि से । रे मोहवश मदमत्त एवं मूढ है निजकार्य में | निर्मोह तो वह ज्ञानज्योति प्राप्त कर शुधभाव को । उज्ज्वल करे सब ओर से तब सहजवस्था प्राप्त हो ।। १६१ ।। अनादि संसार से समस्त जनसमूह की तीव्र मोह के उदय के कारण जो ज्ञानज्योति निरंतर मत्त है, काम के वश है और निजकार्य में विशेषरूप से मुग्ध है, मूढ है; वही ज्ञानज्योति मोह के अभाव से उस शुद्धभाव को प्राप्त करती है कि जिस शुद्धभाव ने सभी दिशाओं को उज्ज्वल किया है और सहजावस्था प्राप्त की है। उक्त छन्द के भाव को आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "अपने शुद्ध स्वभाव का भान होते ही मोह का अभाव होकर ज्ञानज्योति शुद्धभाव को प्राप्त करती है। जो पहले काम के वश थी, अब उसके बदले वही ज्ञानज्योति शुद्धभाव से दिशामंडल को प्रकाशित करती है अर्थात् वह ज्ञानज्योति चारों तरफ से उज्ज्वल हो गई है, सहज अवस्था को प्रगट हो गई है। ऐसी ज्ञानज्योति का प्रगट होना ही धर्म है, संवर है, आलोचना है। " उक्त छन्द में ज्ञानज्योति की महिमा बताई गई है। कहा गया है कि मोह के सद्भाव में अनादिकाल से समस्त संसारीजीवों की जो ज्ञानज्योति मत्त हो रही थी, काम के वश हो रही थी; वही ज्योति मोह के अभाव में शुद्धभाव को प्रगट करती हुई सभी दिशाओं को उज्ज्वल करती है और सहजावस्था को प्राप्त करती है। ज्ञानज्योति का सम्यग्ज्ञान के रूप स्फुरायमान होना ही आलुंछन है, आलुंछन नाम की आलोचना है, निश्चय आलोचना है ।। १६१ ।। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ९२४
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy