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नियमसार गाथा १११ विगत दो गाथाओं में परमालोचना के आरंभिक दो भेद आलोचन एवं आलुंछन की क्रमश: चर्चा की। अब इस गाथा में तीसरे भेद अविकृतिकरण की चर्चा करते हैं । गाथा मूलत: इसप्रकार है -
कम्मादो अप्पाणं भिण्णंभावेइ विमलगुणणिलयं। मज्झत्थभावणाए वियडीकरणं ति विण्णेयं ॥१११।।
(हरिगीत) निर्मलगुणों का निलय आतम कर्म से भिन जीव को।
भाता सदा जो आतमा अविकृतिकरण वह जानना ॥१११|| जो मध्यस्थभावना में कर्म से भिन्न, विमलगुणों के आवासरूप अपने आत्मा को भाता है; उस जीव को अविकृतिकरण जानना चाहिए।
इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
“यहाँ शुद्धोपयोगी जीव की परिणति विशेष का कथन है।
पापरूपी अटवी को जलाने के लिए अग्नि के समान जो जीव; द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म से भिन्न; सहजगुणों के आवास निज आत्मा को माध्यस्थभाव से भाता है; उस जीव को अविकृतिकरण नामक परम-आलोचना का स्वरूप वर्तता ही है।"
आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
“आत्मद्रव्य द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म से रहित सहज गुणों का निधान है । जो जीव उसका ध्यान करता है, उसके विकार का नाश होकर सहज गुण प्रगट होते हैं। सर्वप्रथम यह बात सुनकर इसका विचार और धारणा करके बार-बार इसी का चिंतन होना चाहिए, पश्चात् अन्दर में उसका परिणमन होते ही अविकारी दशा प्रगट होती