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गाथा ११० : परमालोचनाधिकार
१६३ इस छन्द का भाव आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
"आसन्नभव्य सम्यग्दृष्टि जीव अपने परमशुद्ध कारणपरमात्मा के आश्रय से संसार के मूल (जड़) को उखाड़ डालता है, इसका नाम ही आलुंछन है और यह निश्चय आलोचना का एक प्रकार है। ___अनादि संसार से जीव ने एक क्षण मात्र भी ऐसी आलोचना नहीं की है; क्योंकि ऐसी आलोचना करनेवाले को शुद्धभाव प्रगट होकर मुक्ति प्राप्त हुए बिना नहीं रहती।
निश्चय आलोचना कहो, संवर कहो, धर्म कहो- यह अनादिकाल से प्रगट क्यों नहीं हुआ और अब कैसे प्रगट होगा? – यह दोनों बातें इस छन्द में बताई गई हैं।"
इस छन्द में सदा जयवन्त पंचमभाव का माहात्म्य बताया गया है। कहा गया है कि यह परमपारिणामिकभावरूप पंचमभाव आत्मनिष्ठ मुनिराजों की मुक्ति का मूल है, परमपवित्र है, एकाकार है, अनादिअनन्त सनातन सत्य है। ऐसा यह एक शुद्ध-शुद्ध पंचमपरमभाव सदा जयवंत है।
ध्यान रहे यहाँ परमपंचमभाव की शुद्धता पर विशेष वजन डालने के लिए शुद्ध पद का प्रयोग दो बार किया गया है। तात्पर्य यह है कि यह परमभाव स्वभाव से तो शुद्ध है ही, पर्याय की शुद्धता का भी एकमात्र आश्रयभूत कारण है।।१६०॥ दूसरा छन्द इसप्रकार है -
(मंदाक्रांता) आसंसारादखिलजनतातीव्रमोहोदयात्सा मत्ता नित्यं स्मरवशगता स्वात्मकार्यप्रमुग्धा। ज्ञानज्योतिर्धवलितककुम्भमंडलं शुद्धभावं मोहाभावात्स्फुटितसहजावस्थमेषा प्रयाति ।।१६१।।
१. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ९२३-९२४