SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 169
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नियमसार अनुशीलन त्यों त्रिकाल एकरूप ही है, शुद्धनिश्चयनय से वह परमपारिणामिकभाव नित्यनिगोद के जीवों के भी पाया जाता है; क्योंकि शुद्धनिश्चय में तो समस्त जीवों को परमस्वभाव ही है। अभव्यत्वपारिणामिकभाव व्यवहार नय का विषय है। अभव्यजीव के मोक्ष प्राप्त करने की योग्यता नहीं है। – यह भी शुद्धनिश्चयनय में लागू नहीं पड़ता, शुद्धनिश्चयनय से तो समस्त जीव परमपारिणामिकभाव स्वरूप ही है।" उक्त कथन का तात्पर्य यह है कि यद्यपि परमभाव सभी जीवों के पाया जाता है और वह परमभाव परमशुद्धनिश्चयनय का विषय है। इसकारण परमशद्धनिश्चयनय से व्यवहारनय के विषयभूत अभव्यत्वपारिणामिकभाव को परमभाव नहीं कहा जा सकता; क्योंकि अभव्यत्वरूप पारिणामिकभाव के आश्रय से सम्यग्दर्शनादि की उत्पत्ति संभव नहीं है।।११०॥ . इसके बाद टीकाकार मुनिराज दो छन्द लिखते हैं, जिनमें से पहला छन्द इसप्रकार है (मंदाक्रांता) एको भावः स जयति सदा पंचम: शुद्धशुद्धः कर्मारातिस्फुटितसहजावस्थया संस्थितोयः। मूलं मुक्तेर्निखिलयमिनामात्मनिष्ठापराणां एकाकारः स्वरसविसरापूर्णपुण्यः पुराणः ॥१६०।। (हरिगीत) हैं आत्मनिष्ठा परायण जो मूल उनकी मुक्ति का। जो सहजवस्थारूप पुण्य-पाप एकाकार है। जो शुद्ध है नित शुद्ध एवं स्वरस से भरपूर है। जयवंत पंचमभाव वह जो आत्मा का नूर है।।१६०|| जो कर्म से दूरी के कारण प्रगट सहजावस्थारूप विद्यमान है, आत्मनिष्ठ सभी मुनिराजों की मुक्ति का मूल है, एकाकार है, निजरस के विस्तार से भरपूर होने के कारण पवित्र है, सनातन पुराण पुरुष है; वह शुद्ध-शुद्ध एक पंचमभाव सदा जयवंत है। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ९१७-९१८
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy