SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 160
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गाथा १०९ : परमालोचनाधिकार १५३ ( हरिगीत ) इन्द्रियरव से मुक्त अर अज्ञानियों से दूर है । अनय- अनय से दूर फिर भी योगियों को गम्य है । सदा मंगलमय सदा उत्कृष्ट आतमतत्त्व जो । वह पापभावों से रहित चेतन सदा जयवंत है ।। १५६ ।। अज्ञानियों से अत्यन्त दूर, सभी इन्द्रियों के समूह से उत्पन्न कोलाहल से विमुक्त, सदा शिवमय जो उत्कृष्ट आत्मतत्त्व है; वह नय - अनय के समूह से दूर होने पर भी योगियों से गोचर है । पापों से रहित चैतन्यमय वह सहजात्मतत्त्व अत्यन्त जयवंत है । आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस छन्द के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - 1 " चैतन्यमय सहज शुद्धात्मतत्त्व जड़ द्रव्येन्द्रियों से तो भिन्न है ही, अन्तरंग में खण्ड-खण्डरूप भावेन्द्रियों से उत्पन्न संकल्प-विकल्परूप कोलाहल से भी रहित है । इन्द्रियों के ऊपर लक्ष्य करने से विकल्पों का कोलाहल उत्पन्न होता है, अन्तर्मुख चैतन्य वस्तु में इन्द्रियों के समूह से उत्पन्न होनेवाली अशान्ति नहीं है अर्थात् चैतन्य के अवलम्बन में ही शान्ति की उत्पत्ति और अशान्ति का अभाव होता है - इसका नाम धर्म है। चैतन्य के ज्ञानदर्शनोपयोग का व्यापार बाह्य इन्द्रियविषयों में होता है, वह अशान्तिरूप है, चाहे वह शुभरूप हो अथवा अशुभरूप; क्योंकि भगवान आत्मा तो शुभ-अशुभभाव के विकल्पों से रहित सदा ध्रुवत्वरूप से जयवन्त वर्तता है। ऐसे ध्रुवत्वरूप चैतन्य के अवलम्बन से ही धर्म प्रकट होता है । जिसप्रकार लेंडीपीपर बहुत काल तक रखी रहे, तो भी उसकी चौसठपुटी तिखास की शक्ति ज्यों की त्यों रहती है, नाश नहीं होती; उसी प्रकार आत्मा पूर्व में अनन्तबार नरक - निगोद में रखड़ा, तो भी १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ९०२
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy