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________________ १५४ नियमसार अनुशीलन अभी ज्यों का त्यों पूर्ण जयवन्त वर्तता है। त्रिकाली शक्ति अभी भी अपनी सम्पूर्ण शक्तिपने विद्यमान है और मुनिराजों को अन्तरंग में उस परिपूर्ण चिदानंद शक्ति का अनुभव होता है; इसलिए कहते हैं कि अहो? यह सहजतत्व अत्यन्त जयवन्त वर्तता है। ऐसे सहजतत्त्व की दृष्टि और महिमा करके उसमें स्थिर होना ही आलोचन और संवर है।" ___ इस छन्द में चैतन्यमय सहजतत्त्व के जयवंत होने की घोषणा की गई है। कहा गया है कि अज्ञानियों की पकड़ से अत्यन्त दूर, इन्द्रियों के कोलाहल से मुक्त और नय-अनय के विकल्पजाल में न आने पर भी योगियों के अनुभवज्ञान में सदा विद्यमान यह अनघ चिन्मय सहजतत्त्व सदा जयवंत वर्तता है।।१५६।। चौथा छन्द इसप्रकार है - (मंदाक्रांता) शुद्धात्मानं निजसुखसुधावार्धिमञ्जन्तमेनं बुद्ध्वा भव्यः परमगुरुतःशाश्वतंशंप्रयाति । तस्मादुच्चैरहमपि सदा भावयाम्यत्यपूर्व भेदाभावे किमपिसहजं सिद्धिभूसौख्यशुद्धम् ।।१५७।। (हरिगीत) श्रीपरमगुरुओं की कृपा से भव्यजन इस लोक में। निजसुख सुधासागर निमज्जित आतमा को जानकर॥ नित प्राप्त करते सहजसुख निर्भेद दृष्टिवंत हो। उस अपूरब तत्त्व को मैं भा रहा अति प्रीति से।।१५७|| निजात्मा के आश्रय से उत्पन्न सुखरूपी अमृत के सागर में डुबकी लगाते हुए इस शुद्धात्मा को जानकर भव्यजीव परमगुरु के सहयोग से शाश्वत सुख को प्राप्त करते हैं; इसलिए भेद के अभाव की दृष्टि से जो सिद्धि से उत्पन्न सुख से शुद्ध है - ऐसे सहज तत्त्व को मैं भी अत्यपूर्व रीति से अत्यन्त भाता हूँ। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ९०४
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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