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नियमसार अनुशीलन आलोचना के प्रपंच का उपहास किया है। अरे ! चैतन्य के आँगन में शुभविकल्पों का क्या काम? हमें तो परमार्थ स्वरूप चैतन्य के आश्रय में ही विशुद्धता होती है; इसलिए वही परमार्थ आलोचन है। ___ मूल सूत्र में निश्चय आलोचन का स्वरूप कहकर ऐसा कहा कि हे शिष्य! तू परम जिननाथ के उपदेश द्वारा निश्चय आलोचन के स्वरूप को जान । इसमें से टीकाकार आचार्य ने यह अर्थ निकाला कि अहो! भगवान कुन्दकुन्दाचार्य ने चैतन्य के अवलोकन को ही आलोचन कहा है और व्यवहार आलोचन के विकल्पों की उपेक्षा की है। ___ अज्ञानी कहता है कि अरे! तुम व्यवहार को ढीला करके उसकी उपेक्षा करते हो और निश्चय का आदर करते हो, परन्तु भाई! यह तो आचार्य भगवान का कथन है। निश्चय स्वभाव के अवलम्बन से ही संवर होता है-व्यवहार और विकल्पों से नहीं, ऐसा जिनेन्द्र भगवान ने कहा है।
ऐसा कहकर व्यवहार आलोचनरूप विधि-निषेध के विकल्पों का निषेध किया है । व्यवहार के विकल्प आते हैं, पर उनके अवलम्बन से मोक्षमार्ग प्रगट नहीं होता।" |
उक्त कथन का अभिप्राय यह है कि आत्मावलोकन (आत्मानुभव) रूप निश्चय आलोचना में सब कुछ समाहित है; क्योंकि मोक्ष का हेतु तो वही है, व्यवहार आलोचना तो शुभभावरूप होने से बंध का ही कारण है। अत: वह उपेक्षा करने योग्य ही है ।।१५५।। तीसरा छन्द इसप्रकार है -
__ (पृथ्वी) जयत्यनघचिन्मयं सहजतत्त्वमुच्चैरिदं विमुक्तसकलेन्द्रियप्रकरजातकोलाहलम्। नयानयनिकायदूरमपि योगिनां गोचरं
सदा शिवमयं परं परमदूरमज्ञानिनाम् ।।१५६।। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ८९९-९०० २. वही, पृष्ठ ९०० ३. वही, पृष्ठ ९००