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________________ गाथा १०९ : परमालोचनाधिकार १५१ की ज्ञानज्योति में पुण्य-पापरूपी अंधकार का अभाव है; इसलिए चैतन्यसूर्य द्वारा पुण्य-पाप का नाश किया जाता है - ऐसा कहा है। ___ मूल सूत्र (गाथा १०९) में आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने समताभाव की बात की, जिसमें से पद्मप्रभमलधारिदेव सिद्ध करते हैं कि भगवान आत्मा में विधि-निषेध के विकल्प का क्या काम? क्योंकि विधि और निषेध के विकल्प विषमभाव हैं और ज्ञायकमूर्ति अनादि-अनन्त आत्मा समभावरूप है । जो ऐसे समभावस्वरूप आत्मा का अनुभव करता है उसे 'यह करूँ' और 'यह छोडूं' - ऐसे विधि-निषेधरूप राग-द्वेष नहीं होते।?" __इस छन्द में पुराण पुरुष भगवान आत्मा की स्तुति की गई है । कहा गया है कि वह त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा सन्तों के चित्त कमल में अत्यन्त स्पष्ट है । तात्पर्य यह है कि संतगण उसके स्वरूप को भलीभाँति जानते हैं। वह अपने ज्ञानस्वभाव से मोहान्धकारका नाशक है, अज्ञानी जनों के मन और वचन के जाल में नहीं आता, उनके लिए अगोचर है। इसप्रकार अत्यन्त निकटवर्ती परमपुरुष निजात्मा के बारे में हम क्या कहें, क्या न कहें; कुछ समझ में नहीं आता; क्योंकि वह विधिनिषेध के विकल्पों से पार है । तात्पर्य यह है कि वह कैसा है और कैसा नहीं है; यह वाणी से कहे जाने योग्य नहीं है; अपितु अनुभवगम्य है। इस छन्द के बाद टीकाकार मुनिराज एक पंक्ति लिखते हैं, जिसका भाव यह है - “इसप्रकार इस पद्य के द्वारा परमजिनयोगीश्वर ने एकप्रकार से व्यवहार आलोचना के विस्तार का उपहास किया है, हँसी उड़ाई है, निरर्थकता बताई है।" इस पंक्ति का भाव आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - “इसप्रकार इस पद्य द्वारा परम जिनयोगीश्वर ने वास्तव में व्यवहार १. नियमसार प्रवचन. पृष्ठ ८९८ २. वही, पृष्ठ ८९९
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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