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________________ १५० नियमसार अनुशीलन इस छन्द में अत्यन्त भक्तिभाव से सिद्ध भगवान की स्तुति की गई है । कहा गया है कि जो भगवान आत्मा आत्मा के द्वारा आत्मा को आत्मा में ही रहनेवाला जानता है, देखता है; वह आत्मा अल्पकाल में ही मुक्ति की प्राप्ति करता है, वहाँ प्राप्त होनेवाले अतीन्द्रिय आनन्द को भोगता है। अतीन्द्रिय आनन्द का उपभोक्ता वह भगवान आत्मा इन्द्रों, नरेन्द्रों, विद्याधरों, भूमिगोचरी राजाओं; यहाँ तक कि संयमी सन्तों के संघों से भी पूजा जाता है। सभी से वंदित उन सिद्ध भगवान को मैं भी सिद्धों में प्राप्त होनेवाले गुणों को प्राप्त करने की अभिलाषा से वंदन करता हूँ।।१५४|| दूसरा छन्द इसप्रकार है - (मंदाक्रांता) आत्मा स्पष्टः परमयमिनां चित्तपंकेजमध्ये ज्ञानज्योतिःप्रहतदुरितध्वान्तपुंजः पुराणः । सोऽतिक्रान्तो भवति भविनांवाङ्मनोमार्गमस्मिनारातीये परमपुरुषे को विधि: को निषेधः ।।१५५।। . (हरिगीत) जगतजन के मन-वचन से अगोचर जो आतमा। वह ज्ञानज्योति पापतम नाशक पुरातन आतमा ।। जो परम संयमिजनों के नित चित्त पंकज में बसे। उसकी कथा क्या करें क्या न करें हम नहिं जानते॥१५५|| जो पुराण पुरुष भगवान आत्मा उत्कृष्ट संयमी सन्तों के चित्तकमल में स्पष्ट है और जिसने ज्ञानज्योति द्वारा पापान्धकार के पुंज का नाश किया है; वह आत्मा संसारी जीवों के मन व वचन मार्ग से पार है, अगोचर है। इस अत्यन्त निकट परमपुरुष के संबंध में हम क्या विधि और क्या निषेध करें ? आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस छन्द के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "जिसप्रकार सूर्य में अंधकार का अभाव है, उसीप्रकार चैतन्यसूर्य पिकर !
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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