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________________ १४९ गाथा १०९ : परमालोचनाधिकार आवासवाला देखता है; वह आत्मा अतीन्द्रिय आनन्दमय मुक्तिलक्ष्मी के विलासों को अल्पकाल में प्राप्त करता है । वह आत्मा देवताओं के इन्द्रों से, विद्याधरों से, भूमिगोचरियों और संयम धारण करनेवालों की पंक्तियों से वंदनीय होता है। सबके द्वारा वंदनीय, सम्पूर्ण गुणों के भंडार उस आत्मा को उसमें विद्यमान गुणों की अपेक्षा से, अभिलाषा से मैं वंदन करता हूँ। इस छन्द का भाव आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - ___ “यहाँ इन्द्रियों से, मन से अथवा राग से देखने की बात नहीं कही । यहाँ तो यह कहा है कि जो अन्तर्मुख होकर आत्मा को आत्मा में आत्मा से देखता है, वह अतीन्द्रिय आनन्दमय मुक्तिसुख को प्राप्त करता है। पर्याय के अवलम्बन से भी आत्मदर्शन नहीं होता; बल्कि अभेद आत्मा के अवलम्बन से आत्मा का अवलोकन होता है। ___ जो जीव अभेद आत्मा के अवलम्बन से आत्मा को देखता है, वह अल्पकाल में मुक्तिसुख प्राप्त करता है। ___ यहाँ मात्र आत्मा की ही बात है। जो जीव अन्तर्मुख होकर आत्मा की प्रतीति, आत्मा का वेदन और आत्मा का अनुभव करता है; वह शीघ्र मोक्ष सुख प्राप्त करता है - यही मोक्षसुख प्राप्त करने का उपाय है। मोक्षसुख त्रिकाली द्रव्य के आश्रय से प्रगट होता है, वर्तमान परिणाम के आश्रय से मोक्षसुख प्रगट नहीं होता। - वास्तविक धर्म तो अन्तर्मुख आत्मा की प्रतीति, ज्ञान और रमणता होने पर ही होता है । जो जीव ऐसे चैतन्यस्वरूप आत्मा का अवलम्बन लेते हैं, वे अल्पकाल में मुक्तिलक्ष्मी को प्राप्त करते हैं और मुनियों, देवेन्द्रों, विद्याधरों और राजाओं से वन्दनीय होते हैं। - ऐसे उस सर्ववंद्य सकल गुणनिधि आत्मा की मैं उसके गुणों की अपेक्षा से वन्दना करता हूँ, नमस्कार करता हूँ।" १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ८९६ २. वही, पृष्ठ ८९७
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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