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________________ १४८ नियमसार अनुशीलन वही आलोचन है और उसमें ही परमसमता भाव प्रगट होता है । जो अपने अन्तरङ्ग में अपने कारण परमात्मा को देखता है, उसे आलोचन होता है।' मुझे जगत का कोई पदार्थ अनुकूल-प्रतिकूल नहीं, मैं तो निर्विकल्प ज्ञायक मूर्ति हूँ - ऐसी परमसमता श्रद्धा में प्रगट करना सम्यग्दर्शन धर्म है। जो जीव अपने परिणाम को समभाव में स्थापित करके परमसमता के आलम्बन पूर्वक अपने अन्तरङ्ग में विराजमान कारणपरमात्मा को देखता है, उसे निश्चय आलोचन होता है।" ध्यान रहे, यह आलोचना के प्रथम भेदरूप आलोचन का स्वरूप स्पष्ट करने वाली गाथा है। अत: इसमें आलोचना का नहीं, आलोचन का स्वरूप स्पष्ट किया गया है। इस गाथा में मुख्यरूप से यही कहा गया है कि जब यह आत्मा अन्तरोन्मुख होकर कारणपरमात्मारूप अपने आत्मा का अवलोकन करता है, आत्मा का अनुभव करता है; तब उसका यह अवलोकन ही निश्चय आलोचन है।।१०९|| इसके बाद टीकाकार मुनिराज छह छन्द लिखते हैं, जिनमें से पहला छन्द इसप्रकार है (स्रग्धरा) आत्मा ह्यात्मानमात्मन्यविचलनिलयं चात्मना पश्यतीत्थं । यो मुक्तिश्रीविलासानतनुसुखमयान् स्तोककालेन याति ।। सोऽयं वंद्यः सुरेशैर्यमधरततिभिः खेचरैर्भूचरैर्वा । तं वंदे सर्ववंद्यं सकलगुणनिधिं तद्गुणापेक्षयाहम् ।।१५४।। (हरिगीत) जो आतमा को स्वयं में अविचलनिलय ही देखता। वह आतमा आनन्दमय शिवसंगनी सुख भोगता।। संयतों से इन्द्र चक्री और विद्याधरों से। भी वंद्य गुणभंडार आतमराम को वंदन करूँ।।१५४|| इसप्रकार जो आत्मा आत्मा को आत्मा द्वारा आत्मा में अविचल १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ८९४ २. वही, पृष्ठ ८९५
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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