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नियमसार गाथा १०९ अब आलोचना का स्वरूप कहते हैं । गाथा मूलत: इसप्रकार है - जो पस्सदि अप्पाणं समभावे संठवित्तु परिणाम। आलोयणमिदि जाणह परमजिणंदस्स उवएसं ।।१०९।।
(हरिगीत) उपदेश यह जिनदेव का परिणाम को समभाव में।
स्थाप कर निज आतमा को देखना आलोचनम् ।।१०९|| जो जीव परिणामों को समभाव में स्थापित कर निज आत्मा को देखता है; वह आलोचन है - ऐसा जिनदेव का उपदेश जानो। . इस गाथा का भाव टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
“यहाँ आलोचना के स्वीकारमात्र से परमसमताभावना कही गई है।
सहज वैराग्यरूपी अमृतसागर के फेनसमूह के सफेद शोभामंडल की वृद्धि के हेतुभूत पूर्णमासी के चन्द्रमा समान जो जीव सदा अन्तर्मुखाकार, अति अपूर्व, निरंजन, निजबोध के स्थानभूत कारणपरमात्मा को सम्पूर्णतया अन्तर्मुख करके निजस्वभावनिरत सहज अवलोकन द्वारा अपने परिणामों को समता में रखकर, परमसंयमीरूप से स्थित रहकर देखता है; यही आलोचन का स्वरूप है। ऐसा, हे शिष्य तू परम जिननाथ के उपदेश से जान।
इसप्रकार यह आलोचना के भेदों में पहला भेद हुआ।"
इस गाथा और उसकी टीका के भाव को आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
"पहले तू यह जान कि वीतरागदेव आलोचना किसे कहते हैं ? यह जानकर तू अपने वीतराग परिणाम को आत्मा में स्थापित कर । वर्तमान परिणाम स्वसन्मुख होने पर जो स्वभाव की स्वीकृति होती है,