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________________ १४६ नियमसार अनुशीलन ( हरिगीत ) मुक्तिरूपी अंगना के समागम के हेतु जो । भेद हैं आलोचना के उन्हें जो भवि जानकर || निज आतमा में लीन हो नित आत्मनिष्ठित ही रहें। हो नमन बारंबार उनको जो सदा निजरत रहें ।। १५३ || मुक्तिरूपी अंगना ( रमणी) के संगम के हेतुभूत आलोचना के इन चार भेदों को जानकर जो भव्यजीव निज आत्मा में स्थिति को प्राप्त करता है; उस स्वात्मा में लीन भव्यजीव को नमस्कार हो । आध्यात्मिकसत्पुरुष श्वी कानजी स्वामी इस छन्द के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं "यहाँ आलोचना पर्याय को व्यवहार से मुक्ति का कारण कहा है। वास्तव में तो आलोचना शुद्ध द्रव्य के आश्रय से प्रगट होती है, इसलिए मोक्ष का मूल कारण तो शुद्ध आत्मद्रव्य है - ऐसे आत्मा में जो लीन रहते हैं, उन सन्तों के लिए हमारा नमस्कार हो । " - इसप्रकार इस छन्द में तो मात्र उन भावलिंगी मुनिराजों को नमस्कार किया गया है; जो भगवान आत्मा के आश्रय से मुक्ति के कारणरूप आलोचना के इन चार भेदों को जानकर समभावपूर्वक निज आत्मा में स्थापित होते हैं ।। १५३॥ १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ८९२ में असत्य या तो वाणी में होता है या ज्ञान में; वस्तु में नहीं । वस्तु असत्य की सत्ता ही नहीं है । वस्तु को अपने ज्ञान और वाणी के अनुरूप नहीं बनाया जा सकता और बनाने की आवश्यकता भी नहीं है। आवश्यकता अपने ज्ञान और वाणी को वस्तुस्वरूप के अनुरूप बनाने की है। जब ज्ञान और वाणी वस्तु के अनुरूप होंगे तब वे सत्य होंगे। जब आत्मा सत्स्वभावी आत्मा के आश्रय से वीतराग परिणाति प्राप्त करेगा, तब सत्यधर्म का धनी होगा । जितने अंश में प्राप्त करेगा, उतने अंश में सत्यधर्म का धनी होगा । - धर्म के दशलक्षण, पृष्ठ ७८
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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